स्कूल खुलने के एक दिन पहले मेरी बेटी एक अजीब सी बैचेनी से भर गयी.बार बार कहती कल स्कूल जाना है लेकिन स्वर में उत्साह ना था बल्कि एक तनाव एक बैचेनी.ऐसा पहले कभी ना हुआ था इतने साल की स्कूलिंग में ये पहला मौका था जब की स्कूल को लेकर उसमे कोई तनाव था.मैंने उससे बात की थोडा उसका ध्यान हटाने की कोशिश भी की लेकिन स्कूल तो जाना ही था.
दूसरे दिन में बैचेनी से उसके स्कूल से लौटने का इंतजार कर रही थी. जैसे ही वह आयी मैंने पूछा कैसा रहा पहला दिन.सुनते ही वह चिढ गयी मम्मी अभी स्कूल की कोई बात नहीं. खैर उस समय उसका ध्यान दूसरी बातों में लगाया ताकि वह रिलेक्स हो जाये. आखिर रात में मैंने पूछ ही लिया हुआ क्या??मन में भरा गुबार जैसे निकलने को बेताब था.बोली मम्मी स्कूल वाले भी सारे समय लेक्चर ही सुनाते रहते हैं. अब इस साल हमारे स्कूल की एक लड़की मेरिट लिस्ट में टॉप पर आ गयी तो सारे पीरियड में सारे टीचर्स यही कहते रहे की तुम्हारे सीनियर्स ने ऐसा किया इतने मार्क्स लाये इसलिए तुम्हे भी इतनी मेहनत करना है
स्कूल का पहला दिन १० वीं ओर १२ वीं के शानदार रिजल्ट की गर्वित उद्घोषणा के साथ ही आने वाले सत्र में बच्चों को बहुत मेहनत करके आगे बढ़ने की सलाह सीख दे डाली गयी.उद्देश्य निःसंदेह उन्हें अच्छे मार्क्स के साथ पास होने के लिए प्रेरित करना था लेकिन जब प्रेरणा देने का काम लेक्चर बन जाये ओर बच्चों पर दबाव डालने लगे तब एक गंभीर विषय हो जाता है.
उस दिन तो उसे जैसे तैसे समझाया कि ऐसा तुम्हे ओर अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित करने के लिए कहा गया. एक आदर्श सामने हो तो पता होता है कि कितनी कैसी मेहनत करके कहाँ पहुंचना है. लेकिन ये सिलसिला उसी दिन ख़त्म नहीं हुआ. पिछले लगभग एक महिने से लगभग रोज़ कि ही ये कहानी हो गयी.
उसके प्रश्न भी उचित ही है -उसका कहना है कि मम्मी अगर हमें अच्छे मार्क्स लाना है तो उसके लिए हमें पढ़ाना चाहिए ना कि क्लास में सिर्फ लेक्चर देना चाहिए.जिसमे अभी जब कि फर्मेतिव असेसमेंट सर पर है टीचर्स रोज़ ही ये सुनाते हैं कि में ऐसे मार्क्स नहीं दूंगा वैसे रियायत नहीं दूंगा वगैरह वगैरह. रोज़ रोज़ एक जैसा लेक्चर आखिर कोई कैसे सुन सकता है वो भी रोज़ दिन में ५ विषयों के ५ टीचर्स से ५ बार.
नतीजा ये है कि सारा दिन पढ़ने के बाद भी उसका तनाव एक्सट्रीम पर होता है इस डर के साथ कि मुझे कुछ याद ही नहीं है में एक्जाम में क्या करूंगी.जब उसे समझाया जाता है कि बेटा कोई चीज़ ऐसे भूली नहीं जाती एक्साम में सब याद आ जाता है, तुम सिर्फ अपनी पढाई करो मार्क्स कि चिंता छोड़ दो वो जैसे भी आयें बड़ी बात नहीं है तो वह चिढ जाती है.
नतीजा अब वह स्कूल ना जाने के बहाने तलाशती है लेकिन उपस्तिथि कम होने का डर भी सर पर सवार रहता है तो कई बार ना चाहते हुए भी जाना होता है.
इन ३० दिनों में जिस तरह का तनाव उसमे देखने को मिल रहा है वह पिछले १२ सालों में कभी नहीं देखा वह भी जब जब कि वह स्कूल कि हर बात मुझे बताती है जिससे कम से कम उसका मन हल्का हो जाता है.
लेकिन में सोचती हूँ उन बच्चों का क्या होता होगा जिनके माता पिता भी अच्छे मार्क्स को लेकर उनके पीछे पड़े रहते हैं?वो बच्चे तो बेचारे घर में ऐसी बातें बताते भी नहीं होंगे सारा दिन स्कूल में ओर फिर घर में भी रोज़ वही लेक्चर सुन सुन कर उनका क्या हाल होता होगा?
अभी कुछ दिनों पहले दस्तक क्राइम पेट्रोल पर ऐसा ही एक केस देखने को मिला था जिसमे घर ओर स्कूल के दबाव से परेशान हो कर १०वी की एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली थी. बच्चों में तनाव इस कदर बढ़ गया है ओर इसे बांटने का उनके पास कोई जरिया भी नहीं है.
फिर जो बच्चे IIT या अन्य प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहें है उनका तो भगवान ही मालिक है.
एक तरफ हम शिक्षा पद्धति में बदलाव कि बात करते हैं ताकि बच्चे मार्क्स कि आपाधापी से निकल सकें .दूसरी ओर आसान बनाये गए सिस्टम को फिर मार्क्स के साथ जोड़ कर उनका तनाव पहले से भी अधिक बढा दिया गया है.
पहले जहाँ साल में सिर्फ ३ मेन एक्साम्स होते थे अब सारा साल ही F A या S A चलते रहते हैं. जिससे बच्चे जूझते रहते हैं .
स्कूल मेरिट लिस्ट से अपनी दुकानदारी चलाते हैं अपने स्टार बच्चों को अपने विज्ञापनों में नाम फोटो ओर परसेंट के साथ प्रकाशित करके अगले साल बेहतर परीक्षा परिणाम के वादे के साथ ज्यादा नए एडमिशन पाते हैं ओर अगली बेच के बच्चों के लिए एक नयी चुनौती रख देते हैं जिसके लिए लगातार दबाव बनाते हैं ताकि अगले साल के विज्ञापन के लिए उन्हें नए स्टार मिल सकें ओर उनकी दुकानदारी चलती रहे.
होना तो ये चाहिए कि अब स्कूल्स के विज्ञापनों में मेरिट लिस्ट के नाम फोटो ओर परसेंट के प्रकाशन पर रोक लगनी चाहिए वैसे भी बच्चे का परफोर्मेंस उसका निजी है स्कूल ने उसे सिर्फ गाइड किया है जिसकी पूरी कीमत वसूली है. उसमे से भी ज्यादातर बच्चे कोचिंग में अपनी पढाई पूरी करते हैं.कई स्कूल्स के पास तो पढ़ने के लिए ढंग के टीचर्स भी नहीं है फिर वे कैसे बच्चे के रिजल्ट पर अपना दावा पेश कर सकते हैं?
ओह देखते तो हम सब भी यह हैं, पर इसे इस नजरिए से भी देखा जा सकता है, ये बिल्कुल नई सोच है।
जवाब देंहटाएंमैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि जो शिक्षण संस्थाएं बच्चों की तस्वीरों के साथ उनके द्वारा हासिल अंको को लिखकर विज्ञापन छपवाते हैं, ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगनी चाहिए।
वैसे भी विज्ञापन उसका होना चाहिए जो आपके यहां अधिक बच्चों का अंक है, यानि स्कूल में दो चार बच्चों तस्वीरों को छाप कर बढिया नहीं कहा जा सकता, क्योंकि क्लास के 50 बच्चों में बाकी का क्या रहा, वो भी तो विज्ञापन में बताना चाहिए।
अच्छे संदर्भ में लिखा सार्थक लेख..
बच्चों पर मार्क्स के लिए दबाव बनाना ठीक नहीं। इससे उनका शारीरिक एवं मानसिक विकास रुक जाता है। कुछ बच्चे अवसाद का शिकार हो जाते हैं।
जवाब देंहटाएंबढिया आलेख……… आभार
प्रस्तुति अचछी लगी। मेरे नए पोस्ट पर आपका हार्दिक अभिनंदन है। धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंस्कूलों कों केवल अपने प्रचार, प्रसार और व्यापार से समतब है. बच्चों पर क्या बीतती है उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं. बहुत अच्छा सामयिक आलेख.
जवाब देंहटाएंMudde ki baat uthaayi hai aapne. Ispar wastaw men gahan chintan zaruri hai.
जवाब देंहटाएं............
कितनी बदल रही है हिन्दी !
मैंने तो सोचा वो कामरेड मार्क्स के बारे में कुछ लिखा है ...
जवाब देंहटाएंहाँ स्कूलों में मात्र नंबरों के खेल हमारे बच्चों में तोता रटंत प्रवृत्ति को ही
बढ़ा रहा है उनमें मौलिक सोच और कल्पनाशीलता को बढावा नहीं दे रहा है
यह सब व्यावसायिक चोचले हैं जिनमें भारतीय प्रतिभाएं स्वाहा हो रही हैं ...
arvind ji kamred marks ke bahane hi sahi aapne is samsya ko bhi padha to sahi..abhar
हटाएंहा ; मार्क्स
जवाब देंहटाएं