गुरुवार, 21 जून 2012

अरे मेडम


कहते है जिंदगी हर कदम पर कुछ न कुछ सिखाती है,और ये पाठ हमें अपनी या दूसरों द्वारा किये गए भूलों ,कामों से तो मिलती ही है जीवन में मिलने वाले लोगो के सानिध्ध्य से भी मिलती है। अपने शैक्षणिक जॉब के दौरान सबसे ज्यादा सानिध्ध्य तो बच्चों का ही रहता है और बच्चे बहुत अच्छे शिक्षक होते है बस जरूरत है उनके काम, व्यवहार, बातों को उस सकारात्मक नज़रिए से देखने की।

कुछ ही दिन पहले की बात है। दोपहर भोजन के दौरान क्लास ५ की कुछ लड़कियों को रोते हुए देखा। कारण पूछने पर पता लगा उनकी क्लास की ही किसी लड़की से लड़ाई हो गयी है ,उसने कुछ कहा है और इस वजह से एक दो नहीं पूरी ५ लड़किया हिलक हिलक कर रो रही है। अब एक लड़की लड़ाई में ५-५ लड़कियों को रुला दे तो पहला ख्याल मन में आता है ,जरूर उसने कुछ किया ही होगा...खैर उन लड़कियों को किसी तरह चुप करवा कर खाना खिलाया और में बात करूंगी इस बात का आश्वासन दिया ।

खाने के बाद उस लड़की को देखा तो अपने पास बुलाया...अभी हम उसे दिव्या कहे? इससे बात करने में आसानी होगी। खैर मैंने पूछा दिव्या क्या हुआ?
मैडम कुछ नहीं ,उसने भोले पन   से जवाब दिया ।
firनीसासारी  लड़कियाँ क्यों रो रही है।
अरे मैडम वो ,अरे मैडम कुछ नहीं एक ने मुझसे कहा की मैंने दूसरी लड़की को चिडचिडी कहा और जब मैंने दूसरी लड़की को बताया तो पहली वाली ने मना कर दिया अब सब मेरे पीछे पड़ गयी है।
मुझे समझ तो कुछ नहीं आया ,फिर भी मैंने कहा ,लेकिन इस बात के लिए इतने सारे लोग क्यों रो रहे है?

अरे मैडम कुछ नहीं,ये सब कहते है की में बहुत चिडचिडी हूँ ,मैंने कहा ठीक है में मान लेती हूँ की चिडचिडी हूँ ,तो क्या बहुत सारे लोग होते है। पर मैडम मैंने कहा की में अपने को बदल लूंगी । अब मैडम एक दिन में तो सब नहीं बदल जायेगा न? मैंने कहा है में अपने को बदल लूंगी...
मैडम सब पता नहीं क्यों मेरे पीछे पड़  जाते है ...में ऐसी हूँ वैसी हूँ ...तो क्या हुआ मैडम ,मैंने कह तो दिया में बदल लूंगी खुद को। अब रोना तो मुझे चाहिए इस बात पर ,और देखिये में तो रो नहीं रही हूँ और ये सब रो -रो कर तमाशा कर रही है।
में अवाक् उस लड़की का आत्म विश्वास देखती रही...किसी भी परिस्थिति को स्वीकार करने का उसका नजरिया किसी अनुभवी प्रोफेशनल से कम  न था।
दिव्या ,ये तो बहुत अच्छी बात है की तुम उनकी बातों को सकारात्मक तरीके से लेती हो और खुद को बदलने के लिए तैयार हो ,तो क्यों नहीं तुम उनसे जाकर बात करती हाथ मिलाओ और फिर से दोस्त बन जाओ।
अरे मैडम आज नहीं अभी जरा उन सबको ठंडा हो जाने दो ,आज में बात करूंगी भी न, तो कोई सुनेगा नहीं। में बाद में उनसे बात कर लूंगी। वैसे भी मैडम अगले हफ्ते मेरा बर्थ डे आने वाला है ,देखना में कार्ड दूँगी न तो सब पार्टी में आ जायेंगे।
में उस लड़की का आत्म विश्वास देखती रह गयी.उस कक्षा ५ की १० साल की लड़की का परिस्थितिओं को देखने का नजरिया ,उन्हें अपने हिसाब से ढाल लेने का विश्वास मुझे जिंदगी को नए तरीके से देखने का सबक सिखा गया।

सोमवार, 18 जून 2012

बच्चों को दे सकारात्मक माहौल


बच्चों के लिए कुछ अच्छा करने की कोशिश हम सभी करते हैं.मकसद होता है उन्हें कुछ सिखाना,समझाना,सही राह दिखाना,उनमे अच्छी आदतों का विकास करना,सही गलत की पहचान करने की काबिलियत विकसित करना.
इसी सन्दर्भ में बच्चों का एक अखबार निकलना शुरू हुआ नाम था दिशा और मकसद था बच्चों को जीने की सही दिशा बताना.
एक दिन कक्षा आठ में बच्चों से इस बारे में चर्चा करने का अवसर मिला.मैंने बच्चों से पूछा की इस अखबार का प्रयोजन क्या है?
बच्चों का जवाब था सकारात्मक ख़बरें बच्चों तक पहुँचाना .
सकारात्मक ख़बरें होती क्या हैं?
इस बारे में बच्चे थोड़े भ्रमित थे. किसी ने कहा जो ख़बरें अच्छीं हों. अब अच्छी मतलब?
जैसे भारत मैच जीता .
अच्छा मान लो अगर भारत हारा और पाकिस्तान जीता तो पकिस्तान जीता ये एक सकारात्मक खबर नहीं होगी? आखिर तो जीत की खबर ही सकारात्मक खबर है. पर बच्चे इस पर एकमत नहीं थे. 
फिर किसी ने कहा जैसे मर्डर की खबर नकारात्मक खबर है.ऐसी खबर बच्चों को नहीं सुनना /बताना चाहिए. 
ठीक है तो क्या ऐसा कह सकते हैं की एक को छोड़ कर बाकी सब लोग जिन्दा और सही सलामत हैं.ये तो सकारात्मक खबर है या ये की कई घरों में चोरी होने से बच गयी. 
खैर ये तो बच्चों का मन टटोलने की कोशिश थी और बच्चे भी समझ रहे थे की ये सकारात्मक नहीं है और नकारात्मक क्या है ये भी उन्हें पता था जो सुखद था. 
इस बातचीत ने सकारात्मकता पर बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया.इस बारे में बच्चों से ढेर सारी बातें भी हुईं पर मन में जो एक बात कचोट गयी वह ये थी की भारत की जीत तो सकारात्मक है(जो बच्चों के देशप्रेम को इंगित करती है) लेकिन अन्य टीम की जीत जीत क्यों नहीं है?इसका अर्थ तो ये हुआ की हमारे बच्चे खेल को खेल भावना से नहीं ले रहे हैं.उनके लिए खेलने का अर्थ सिर्फ जीतना है पर क्या बिना हारे बच्चे जीत का मतलब समझ पाएंगे?
मैंने जब कहा सकारात्मक ख़बरों का मतलब है सामाजिक संस्था,संस्कार और मूल्यों को दर्शाती ख़बरें,तो इन भारी भारी शब्दों के साथ इसे समझना उनके लिए मुश्किल था. उन्हें कुछ सरल उदाहरण देना जरूरी था. 
मैंने उन्हें बताया हम आये दिन ख़बरों में पढ़ते हैं कहीं चोरी हुई,दुर्घटना हुई हत्या डकैती या सरकारी दफ्तरों में धांधली रिश्वतखोरी और इन बातों को देखते सुनते पढ़ते धीरे धीरे हमारा विश्वास अच्छी बातों से कम होता जाता है और मन में ये विश्वास बनने लगता है की दुनिया चोर डकैतों धोखेबाजों से भरी पड़ी है .क्योंकि अच्छे लोगों की उनके अच्छे कामों की खबरें उस तादाद में हम तक नहीं पहुंचतीं जिस तादाद में बुरी ख़बरें हम तक पहुंचती हैं.हम लोग भी बुरे को देखने के आदि हैं.
सड़क किनारे कोई घायल तड़प रहा है उसकी मदद किसी ने नहीं की इस बारे में हम बात करते हैं पर सड़क पर किसी ठेले वाले के ठेले को धक्का लगवा कर सड़क पार करवाने वाले किसी ट्रेफिक हवालदार या अन्य व्यक्ति की तारीफ हम नहीं करते. 
मोबाइल गुम गया,चोरी हो गयी,जेब काट गयी इस बारे में बात होती है पर कोई अनजान व्यक्ति अगर सड़क पर पड़ी फाइलों को हम तक पहुंचा देता है तो उसके बारे में अखबार में बता कर इस अच्छाई को लोगों तक पहुँचने की चिंता हम नहीं करते.कोई हमें लिफ्ट दे कर अपना रास्ता बदल कर हमें अपने गंतव्य तक पहुंचता है तो हम सिर्फ एक थेंक्यु कह कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं पर समाज को एक अच्छे व्यक्ति के अच्छे काम से अवगत कराने की जिम्मेदारी हम नहीं निभाते. नतीजा ये होता है की बुरी ख़बरें लगातार ख़बरों में बनीं रहतीं हैं और अच्छाई पर से विश्वास कम होता जाता है. 
वैसे भी घरों में हम बच्चों को कौन सा सकारात्मक माहौल दे रहे हैं? सास-बहू सीरियल, रियलिटी शो के नाम पर हम बच्चों को एक दूसरों पर विश्वास ना करने की सीख ही तो दे रहे हैं.इसके अलावा हमारी रोज़मर्रा की बातें भी बच्चों को नकारात्मकता की ओर ही तो धकेल रहीं हैं. ट्रेफिक   पुलिस को चकमा देना ,अपनी पहचान का इस्तेमाल कर अवांछित सुविधाएँ पाना रिश्वत दे कर काम निकलवाना जैसी जाने कितनी ही बातें कभी अनजाने ही और कभी जानबूझकर बच्चों के सामने करके हम उनके दिमाग में एक धीमा जहर भर रहे हैं. अच्छाई पर बुराई,तिकड़म की जीत हो सकती है यह विशवास उनके मन में घर कर रहा है. इसीलिए किसी की जीत को बच्चे आसानी से पक्षपात मान लेते हैं,खुद को डांट पड़ने को दोस्तों द्वारा की गयी शिकायत मान लेते हैं.ये नकारात्मकता उन पर इस कदर हावी है की महापुरुषों के जीवन के प्रेरक प्रसंग उनके लिए कहानियां भर हैं. वे उनसे कोई सीख नहीं लेते क्योंकि ऐसा कुछ होते ना वो देखते हैं ना सुनते हैं. 
इस सारे चिंतन के बाद बच्चों के भविष्य की जो भयावह तस्वीर उभरी वह था एक विश्वाश हीन समाज जिसमे रहने को हमारे बच्चे विवश होंगे.एक ऐसा समाज जिसमे ये विश्वास नहीं होगा की हमारे रिश्तेदार,पडोसी,दोस्त हमारी ख़ुशी में खुश होंगे .एक ऐसा समाज जिसमे अच्छा करने वाला मूर्खों की तरह घूरा जायेगा या वह अविश्वास के तीखे प्रहारों से आहत होगा .
कभी सोचा है हम इस नकारात्मकता को फैला कर बच्चों को एकाकीपन से भरा कैसा भविष्य देने जा रहे हैं? 
आज समय आ गया है की हम बच्चों के अच्छाई पर विश्वास को पुख्ता करने के लिए काम करें. अच्छे काम का ज्यादा से ज्यादा प्रचार प्रसार करें.भले कामों को प्रमुखता से प्रचारित करें. 
कहीं ऐसा ना हो अकेली सड़क पर जा रहा कोई बच्चा ठोकर लगने पर पीछे मुड़ कर देखे और सोचे जरूर मेरी परछाई ने ही मुझे धक्का दिया होगा.