रविवार, 22 जुलाई 2012

क्या मार्क्स इतने जरूरी हैं???

स्कूल खुलने के एक दिन पहले मेरी बेटी एक अजीब सी बैचेनी से भर गयी.बार बार कहती कल स्कूल जाना है लेकिन स्वर में उत्साह ना था बल्कि एक तनाव एक बैचेनी.ऐसा पहले कभी ना हुआ था इतने साल की स्कूलिंग में ये पहला मौका था जब की स्कूल को लेकर उसमे कोई तनाव था.मैंने उससे बात की थोडा उसका ध्यान हटाने की कोशिश भी की लेकिन स्कूल तो जाना ही था. 

दूसरे दिन में बैचेनी से उसके स्कूल से लौटने का इंतजार कर रही थी. जैसे ही वह आयी मैंने पूछा कैसा रहा पहला दिन.सुनते ही वह चिढ  गयी मम्मी अभी स्कूल की कोई बात नहीं. खैर उस समय उसका ध्यान दूसरी बातों में लगाया ताकि वह रिलेक्स हो जाये. आखिर रात में मैंने पूछ ही लिया हुआ क्या??मन में भरा गुबार जैसे निकलने को बेताब था.बोली मम्मी स्कूल वाले भी सारे समय लेक्चर ही सुनाते रहते हैं. अब इस साल हमारे स्कूल की एक लड़की मेरिट लिस्ट में टॉप पर आ गयी तो सारे पीरियड में सारे टीचर्स यही कहते रहे की तुम्हारे सीनियर्स ने ऐसा किया इतने मार्क्स लाये इसलिए तुम्हे भी इतनी मेहनत करना है 

स्कूल का पहला दिन १० वीं ओर १२ वीं के शानदार रिजल्ट की गर्वित उद्घोषणा के साथ ही आने वाले सत्र में बच्चों को बहुत मेहनत करके आगे बढ़ने की सलाह सीख दे डाली गयी.उद्देश्य निःसंदेह उन्हें अच्छे मार्क्स के साथ पास होने के लिए प्रेरित करना था लेकिन जब प्रेरणा देने का काम लेक्चर बन जाये ओर बच्चों पर दबाव डालने लगे तब एक गंभीर विषय हो जाता है. 
उस दिन तो उसे जैसे तैसे समझाया कि ऐसा तुम्हे ओर अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित करने के लिए कहा गया. एक आदर्श सामने हो तो पता होता है कि कितनी कैसी मेहनत करके कहाँ पहुंचना है. लेकिन ये सिलसिला उसी दिन ख़त्म नहीं हुआ. पिछले लगभग एक महिने से लगभग रोज़ कि ही ये कहानी हो गयी. 
उसके प्रश्न भी उचित ही है -उसका कहना है कि मम्मी अगर हमें अच्छे मार्क्स लाना है तो उसके लिए हमें पढ़ाना चाहिए ना कि क्लास में सिर्फ लेक्चर देना चाहिए.जिसमे अभी जब कि फर्मेतिव असेसमेंट सर पर है टीचर्स रोज़ ही ये सुनाते हैं कि में ऐसे मार्क्स नहीं दूंगा वैसे रियायत नहीं दूंगा वगैरह वगैरह. रोज़ रोज़ एक जैसा लेक्चर आखिर कोई कैसे सुन सकता है वो भी रोज़ दिन में ५ विषयों के ५ टीचर्स से ५ बार. 

नतीजा ये है कि सारा दिन पढ़ने के बाद भी उसका तनाव एक्सट्रीम पर होता है इस डर के साथ कि मुझे कुछ याद ही नहीं है में एक्जाम में क्या करूंगी.जब उसे समझाया जाता है कि बेटा कोई चीज़ ऐसे भूली नहीं जाती एक्साम में सब याद आ जाता है, तुम सिर्फ अपनी पढाई करो मार्क्स कि चिंता छोड़ दो वो जैसे भी आयें बड़ी बात नहीं है तो वह चिढ जाती है.
नतीजा अब वह स्कूल ना जाने के बहाने तलाशती है लेकिन उपस्तिथि कम होने का डर भी सर पर सवार रहता है तो कई बार ना चाहते हुए भी जाना होता है. 
इन ३० दिनों में जिस तरह का तनाव उसमे देखने को मिल रहा है वह पिछले १२ सालों में कभी नहीं देखा वह भी जब जब कि वह स्कूल कि हर बात मुझे बताती है जिससे कम से कम उसका मन हल्का हो जाता है. 
लेकिन में सोचती हूँ उन बच्चों का क्या होता होगा जिनके माता पिता भी अच्छे मार्क्स को लेकर उनके पीछे पड़े रहते हैं?वो बच्चे तो बेचारे घर में ऐसी बातें बताते भी नहीं होंगे सारा दिन स्कूल में ओर फिर घर में भी रोज़ वही लेक्चर सुन सुन कर उनका क्या हाल होता होगा? 
अभी कुछ दिनों पहले दस्तक क्राइम पेट्रोल पर ऐसा ही एक केस देखने को मिला था जिसमे घर ओर स्कूल के दबाव से परेशान हो कर १०वी की एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली थी. बच्चों में तनाव इस कदर बढ़ गया है ओर इसे बांटने  का उनके पास कोई जरिया भी नहीं है.
फिर जो बच्चे IIT या अन्य प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहें है उनका तो भगवान ही मालिक है. 
एक तरफ हम शिक्षा पद्धति में बदलाव कि बात करते हैं ताकि बच्चे मार्क्स कि आपाधापी से निकल सकें .दूसरी ओर आसान बनाये गए सिस्टम को फिर मार्क्स के साथ जोड़ कर उनका तनाव पहले से भी अधिक बढा दिया गया है. 
पहले जहाँ साल में सिर्फ ३ मेन एक्साम्स होते थे अब सारा साल ही F A या S A चलते रहते हैं. जिससे बच्चे जूझते रहते हैं .
स्कूल मेरिट लिस्ट से अपनी दुकानदारी चलाते हैं  अपने स्टार बच्चों को अपने विज्ञापनों में नाम फोटो ओर परसेंट के साथ प्रकाशित करके अगले साल बेहतर परीक्षा परिणाम के वादे के साथ ज्यादा नए एडमिशन पाते हैं ओर अगली बेच के बच्चों के लिए एक नयी चुनौती रख देते हैं जिसके लिए लगातार दबाव बनाते हैं ताकि अगले साल के विज्ञापन के लिए उन्हें नए स्टार मिल सकें ओर उनकी दुकानदारी चलती रहे. 
होना तो ये चाहिए कि अब स्कूल्स  के विज्ञापनों में मेरिट लिस्ट के नाम फोटो ओर परसेंट के प्रकाशन पर रोक लगनी चाहिए वैसे भी बच्चे का परफोर्मेंस उसका निजी है स्कूल ने उसे सिर्फ गाइड किया है जिसकी पूरी कीमत वसूली है. उसमे से भी ज्यादातर बच्चे कोचिंग में अपनी पढाई पूरी करते हैं.कई स्कूल्स के पास तो पढ़ने के लिए ढंग के टीचर्स भी नहीं है फिर वे कैसे बच्चे के रिजल्ट पर अपना दावा पेश कर सकते हैं?

शनिवार, 7 जुलाई 2012

बच्चों में पढने कि आदत

टी वी कम्पूटर इंटरनेट के ज़माने में पढ़ने की आदत बहुत कम होती जा रही है. हालाँकि बड़े बड़े पुस्तक मेले हर साल लगते हैं ओर उनमे लाखों करोड़ों का व्यापार भी होता है लेकिन इतनी पुस्तकें खरीदने वाले भी पढ़ते कितनी हैं ये एक खोज का विषय है.और जो लोग पढ़ते भी हैं उनमे से कितने लोग हिंदी साहित्य पढ़ते हैं ये तो ओर भी ज्यादा बड़ा प्रश्न है. यही बात बच्चों पर भी लागू होती है. इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अपने लायब्रेरी पीरियड में पढ़ते जरूर हैं लेकिन उनकी इंग्लिश सुधारने के लिए उन्हें इंग्लिश साहित्य पढ़ने को प्रेरित किया जाता है.हिंदी साहित्य या तो पुस्तकालयों में उपलब्ध ही नहीं होता या इस स्तर का ही नहीं होता की वह उनमे रूचि जगा सके. 

कई बार स्कूल में या घर पर भी बच्चों से बात करते हुए उन्हें कई बातों का मतलब समझाने में बहुत दिक्कत होती है कारण की कुछ शब्द जो हमें खडी बोली में पता हैं या जिनके हिंदी भाषा में शब्द बहुत क्लिष्ट हैं ओर इंग्लिश में उनके लिए सही शब्द क्या हैं वो तुरंत दिमाग में नहीं आते. ऐसे ही कई जगहों के नाम या रीति रिवाज परंपरा के बारे में बात करने पर ये बच्चे ऐसे ब्लैंक लुक देते हैं की अफ़सोस होता है. कारण ?? कारण ये है की इन्होने कभी इसके बारे में जाना ही नहीं. जब में ऐसा सोचती हूँ कि आखिर सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में ये बच्चे इतने बेखबर क्यों हैं? तो जो कारण समझ में आता है वो है इनकी पढ़ने कि आदत. जी इतना तो कह ही सकती हूँ कि बच्चों को पढ़ने कि आदत तो है या शायद टेक्स्ट बुक्स कि उबाऊ दुनिया से अलग ये कुछ ओर भी पढना चाहते हैं लेकिन जो साहित्य इनके लिए उपलब्ध है वह है विदेशी साहित्य.अब ये बहस का विषय हो सकता है कि देशी ओर विदेशी साहित्य क्या है साहित्य तो आखिर साहित्य है. जी में इस बात से सहमत हूँ कि साहित्य तो आखिर साहित्य है लेकिन इस साहित्य में घटनाएँ, परिवेश,तीज त्यौहार रीति रिवाज सब विदेशी हैं बच्चे उन्हें बड़े चाव से पढ़ते हैं और शायद इसीलिए उन्हें हेल्लोविन ,क्रिसमस, ईस्टर,तो पता है लेकिन वट सावित्री,आंवला नवमी,गंगा दशहरा महालक्ष्मी व्रत जैसे कई कई त्योहारों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. 
जी हाँ हमने इनके बारे में अपने परिवार परिवेश से जाना लेकिन इसके अलावा भी कई संस्कृतियों के बारे में जाना अपनी भाषा ,परिवेश का साहित्य पढ़ कर.
आज अगर बच्चों को बताया जाये कि देश के किसी हिस्से में लड़कियों कि स्थिति बहुत ख़राब है तो वो शायद विश्वास ही नहीं करें क्योंकि ये स्थिति उन्होंने देखी नहीं ओर पढ़ी भी नहीं.उन्होंने तो पढ़ा है कि लड़कियां १२-१३ साल कि होते ही अपने दोस्त बनाने लगती हैं उनके जीवन के सुख दुःख इन लड़कों से जुड़े होते हैं.उनके माता पिता उन्हें कुछ कहते ही नहीं है.वे जानते ही नहीं हैं कि हमारे देश में लड़कियों को घर से बाहर निकलने के लिए कितने लोगों कि इजाजत लेनी होती हैं या कम उम्र में शादी होना माँ बनना या एक बेमेल शादी को सारी उम्र निभाना कितना मुश्किल होता है. 
वे ये तो जानते हैं कि लोग बुरे होते हैं लेकिन कितने बुरे हो सकते हैं या हमारे यहाँ लोगों कि मानसिकता महिलाओं बच्चों को लेकर क्या होती है उसका उन्हें अंदाज़ा ही नहीं है, वे तो रापंजल, सिन्द्रेल्ला, स्नो व्हाइट में ही खोये हुए हैं जहाँ हर लड़की को बचाने एक राजकुमार आ जाता है.उन्हें क्या पता कि जाने कितनी ही लड़कियां कभी बच पाने के सपने देखे बिना ही दम तोड़ देती हैं. 
कितने ही लडके अपने माता पिता के सपनों का बोझ ढोते असमंजस में जिंदगी गुजार देते हैंऔर कितने ही माता पिता बच्चों कि बेरुखी के चलते बुढ़ापे के अकेलेपन से जूझते रहते हैं. 
खैर गलती बच्चों कि नहीं है.वे तो पढ़ते है और जो भी उन्हें मिले पढ़ते हैं या जो उन्हें पढने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है वो पढ़ते हैं लेकिन हम ही उनकी हिंदी साहित्य में रूचि जाग्रत नहीं कर पा रहे हैं .उन्हें अपने परिवेश को जानने समझने के लिए उचित सामग्री प्रदान नहीं करवा पा रहे हैं.
मेरा मानना है कि बच्चों के लिए अच्छी हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओँ के सामग्री उपलब्ध करवाना चाहिए जिससे वे अपने परिवेश से जुड़ सकें. 


बुधवार, 4 जुलाई 2012

ये भी तो जरूरी है


वैसे तो अभी तक स्कूल कि छुट्टियाँ चल रहीं थीं लेकिन स्कूल दिमाग से निकलता थोड़े ही है.बल्कि छुट्टियों में और ज्यादा समय मिलता है स्कूल कि बातें सोचने उन पर नए सिरे से विचार करने का. रोज़ कि पढाई के साथ एक अतिरिक्त जिम्मेदारी टीचर्स पर होती है और वह है किसी टीचर के अनुपस्थित होने पर उसकी क्लास लेना.वैसे तो इस पीरियड में पढाई ही होनी होती है लेकिन बच्चे सच पढ़ना नहीं चाहते.बड़ी मुश्किल से तो उन्हें कोई फ्री पीरियड मिलता है. तो जैसे ही क्लास में पहुँचो पहली ख़ुशी उनके चेहरे पर दिखती है कि चलो आज पढना नहीं है.लेकिन जल्दी ही ये ख़ुशी काफूर हो जाती है जब उन्हें पता चलता है कि ये फ्री पीरियड फ्री नहीं है बल्कि इसमें भी पढना ही है.और सच बताऊ मुझे इसमें बहुत तकलीफ होती है.बच्चों को इस फ्री पीरियड में अपने मन का काम करने की ,अपने दोस्तों से बात करने कि आज़ादी होना ही चाहिए.आखिर ये भी तो सीखने का एक तरीका हो सकता है.अपने दोस्तों से बात करना या उनके साथ बैठ कर अपनी पढाई कि मुश्किलों को हल करना या अपना अधूरा काम पूरा करना या फील्ड में जाना खेलना वगैरह.लेकिन स्कूल में खेलने और लायब्रेरी के पीरियड होते हैं इसलिए और एक्स्ट्रा पीरियड देना संभव नहीं होता. 

वैसे इन पीरियड में में बच्चों से बात करना चाहती हूँ.ये टीचिंग लर्निंग का सबसे अच्छा तरीका है.लेकिन अफ़सोस बच्चे इसमें आसानी से शामिल नहीं होते. उन्हें लगता है कि टीचर उनसे कुछ उगलवा कर उनके खिलाफ ही उपयोग कर सकती है.वैसे भी अविश्वास एक राष्ट्रीय बीमारी हो गयी है.खैर कभी कभी बच्चों को ये भी कहना पड़ता है कि बातचीत में शामिल होना उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा है इस तह मजबूरी में ही सही लेकिन जब बच्चे बातचीत में शामिल होते है तब बहुत आश्चर्यजनक ओर अद्भुत तथ्य सामने आते हैं.कभी बच्चों का डर तो कहीं उनके मन के संदेह सामने आते हैं तो कभी कभी लगता है कि बच्चे सच में बहुत छोटी छोटी साधारण सी बातें भी नहीं समझ पा रहे हैं क्योंकि ये बातें कभी उनके सामने हुई ही नहीं. 
एक दिन ऐसे ही किसी क्लास में हुई चर्चा यहाँ दे रही हूँ..आप खुद ही पढ़िए सोचिये और समझिये कि सच में इस पीढ़ी कि जरूरत क्या है?
टीचर  :  आप लोग दिन भर में इतनी बातें करते हैं कभी सोचते हैं कि इनमे से कितनी बातें ऐसी होती हैं जिनका कोई अर्थ  होता है?
बच्चे:    चुप्पी 
टीचर:   अच्छा कितने लोग हैं जो रात में सोचते हैं कि हमने दिन भर में कितनी और क्या क्या बातें कीं?
बच्चे:    (सिर्फ एक मुस्कान) 
टीचर:  देखिये अगर आपलोग बात नहीं करना कहते तो ठीक है में मेथ्स के सवाल दे देती हूँ.क्योंकि समय बर्बाद नहीं किया जा सकता कुछ तो करना ही है. 
बच्चे:  नहीं मैडम 
टीचर:   अच्छा आपमें से कितने बच्चों को लगता है कि आप अपनी किसी बात से अपने दोस्तों को या साथियों को हर्ट करते हैं?
बच्चे:  (इधर उधर देखते हुए) एक फिर दो फिर तीन चार बच्चे हाथ उठाते हैं?
टीचर:   अच्छा कितनों को हर्ट करने के तुरंत बाद  लगता है कि आपने हर्ट किया है?
         फिर ८- १० हाथ उठाते हैं.
टीचर:   अच्छा कितनों को लगता है कि हमें अपने दोस्त या साथी से माफ़ी मांगनी चाहिए?
           (संकोच से इधर उधर देखते ६ -७  हाथ उठाते हैं)
टीचर :   कितने लोग सच में माफ़ी माँगते हैं?
बच्चे:    एक दूसरे से आँख चुराते हुए २-३ बच्चे हाथ उठाते हैं. 
टीचर:    ये बताइए जब आपको लगता है कि आपने किसी को हर्ट किया लेकिन उससे माफ़ी नहीं मांगी,तो ये बात आपको परेशान करती        है??
बच्चे:   जी मैडम ,परेशान करती है बार बार वो बात ध्यान आती है. 
टीचर:   क्या बात ध्यान आती है और क्या लगता है?
बच्चे:    वो बात याद आती है कि हमने किसी को हर्ट किया या बुरा किया.
टीचर:    तो कितने लोग है जो इस बात को महसूस करने के बाद दूसरे दिन या उसके बाद भी माफ़ी माँगते हैं?
बच्चे:     १-२ बच्चे हाथ उठाते हैं.
टीचर:    चलिए कोई बात नहीं लेकिन इस बात को लेकर उस दोस्त के सामने आने में शर्म आती है या आप उससे बात नहीं करते ऐसा कितनों को लगता है? 
            ( अब तक बच्चों को शायद ये विश्वास होने लगा था कि ये बातचीत हानिकारक नहीं है और मैडम इसका कोई रिकॉर्ड नहीं रख रही हैं. तो वे खुलने लगे)
बच्चे:    लगभग १२-१५ बच्चे हाथ उठाते हैं. 
टीचर:    अच्छा कितनो को लगता है कि अगर तुरंत माफ़ी मांग ली होती तो ज्यादा अच्छा  होता?दोस्ती भी बच जाती और यूं परेशान भी नहीं होना पड़ता?
बच्चे:    हाथ उठाते हैं साथ ही अब एक दूसरे को देखते भी हैं. अभी तक कुछ बच्चे एक दूसरे से आँखे चुरा रहे थे. 
टीचर:   क्या आपको लगता है कि माफ़ी मांगना इतना मुश्किल है?? 
बच्चे:     मैडम शर्म आती है. 
            लगता है मेरा दोस्त क्या सोचेगा? 
टीचर :   अच्छा कितनो  को लगता है कि अगर मेरा दोस्त एक बार सॉरी कह देता तो अच्छा होता.( कई बच्चे हाथ उठाते हैं )
टीचर:    अगर किसी बहुत पुरानी बात के लिए अगर कोई अभी सॉरी कहेगा तो क्या आप माफ़ कर देंगे और फिर से दोस्त हो जायेंगे?
बच्चे:     यस मैडम 
टीचर:    अच्छा ठीक है आप लोग जिसे भी सॉरी कहना चाहते हैं उसे सॉरी कह दीजिये .( ४-५ बच्चे एक दूसरे को आँखों आँखों में सॉरी कहते हैं कुछ अभी भी चुप चाप बैठे टीचर को देख रहे हैं .उनमे अभी भी झिझक है )
टीचर:    ठीक है में आँखे बंद करती हूँ आप अगर किसी से सॉरी कहना कहते हैं तो आपके पास ३ मिनिट का समय है. ( टीचर आँखें बंद करती है और पूरी क्लास में हलचल शुरू हो जाती है.आँखे खोलने के बाद बच्चों के प्रफुल्लित चहरे दिखते हैं.)
टीचर:   आप लोगो को कैसा  महसूस हो रहा है? 
बच्चे:     बहुत अच्छा ,हल्का महसूस हो रहा है.ख़ुशी हो रही है. 
टीचर:    अच्छा क्या सॉरी कहना वाकई इतना मुश्किल था??
बच्चे:     नहीं मुश्किल नहीं था, कुछ ने कहा थोडा मुश्किल था , तो कुछ ने कहा कि मुश्किल तो है लेकिन कह सकते हैं. 
टीचर:     क्या आपको लगता है कि अगर हम तुरंत सॉरी कह दें तो हमारा टेंशन कम हो जाता?
बच्चे:    जी मैडम सॉरी तुरंत कह देने से सच में कम टेंशन होता.
टीचर:   तो क्या अब से आप लोग तुरंत सॉरी कहना अपनी आदत बनायेंगे? लेकिन हाँ किसी को जानबूझ कर हर्ट नहीं करना है कि बाद में सॉरी कह देंगे. 
बच्चे:    यस मैडम अब से हम गलती करते ही तुरंत माफ़ी मांग लेंगे. 

पीरियड ख़त्म होने को है. अब बच्चे बचे समय में एक दूसरे से बात कर रहे हैं वो खुश हैं और मुझे ख़ुशी है कि में उन्हें वह ख़ुशी दे पाई .एक फ्री पीरियड एक सार्थक चर्चा के साथ ख़त्म हुआ.  बच्चों ने कुछ सीखा जो शायद पढाई से ज्यादा जरूरी भी था. 
kavita   वर्मा