शनिवार, 7 जुलाई 2012

बच्चों में पढने कि आदत

टी वी कम्पूटर इंटरनेट के ज़माने में पढ़ने की आदत बहुत कम होती जा रही है. हालाँकि बड़े बड़े पुस्तक मेले हर साल लगते हैं ओर उनमे लाखों करोड़ों का व्यापार भी होता है लेकिन इतनी पुस्तकें खरीदने वाले भी पढ़ते कितनी हैं ये एक खोज का विषय है.और जो लोग पढ़ते भी हैं उनमे से कितने लोग हिंदी साहित्य पढ़ते हैं ये तो ओर भी ज्यादा बड़ा प्रश्न है. यही बात बच्चों पर भी लागू होती है. इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अपने लायब्रेरी पीरियड में पढ़ते जरूर हैं लेकिन उनकी इंग्लिश सुधारने के लिए उन्हें इंग्लिश साहित्य पढ़ने को प्रेरित किया जाता है.हिंदी साहित्य या तो पुस्तकालयों में उपलब्ध ही नहीं होता या इस स्तर का ही नहीं होता की वह उनमे रूचि जगा सके. 

कई बार स्कूल में या घर पर भी बच्चों से बात करते हुए उन्हें कई बातों का मतलब समझाने में बहुत दिक्कत होती है कारण की कुछ शब्द जो हमें खडी बोली में पता हैं या जिनके हिंदी भाषा में शब्द बहुत क्लिष्ट हैं ओर इंग्लिश में उनके लिए सही शब्द क्या हैं वो तुरंत दिमाग में नहीं आते. ऐसे ही कई जगहों के नाम या रीति रिवाज परंपरा के बारे में बात करने पर ये बच्चे ऐसे ब्लैंक लुक देते हैं की अफ़सोस होता है. कारण ?? कारण ये है की इन्होने कभी इसके बारे में जाना ही नहीं. जब में ऐसा सोचती हूँ कि आखिर सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में ये बच्चे इतने बेखबर क्यों हैं? तो जो कारण समझ में आता है वो है इनकी पढ़ने कि आदत. जी इतना तो कह ही सकती हूँ कि बच्चों को पढ़ने कि आदत तो है या शायद टेक्स्ट बुक्स कि उबाऊ दुनिया से अलग ये कुछ ओर भी पढना चाहते हैं लेकिन जो साहित्य इनके लिए उपलब्ध है वह है विदेशी साहित्य.अब ये बहस का विषय हो सकता है कि देशी ओर विदेशी साहित्य क्या है साहित्य तो आखिर साहित्य है. जी में इस बात से सहमत हूँ कि साहित्य तो आखिर साहित्य है लेकिन इस साहित्य में घटनाएँ, परिवेश,तीज त्यौहार रीति रिवाज सब विदेशी हैं बच्चे उन्हें बड़े चाव से पढ़ते हैं और शायद इसीलिए उन्हें हेल्लोविन ,क्रिसमस, ईस्टर,तो पता है लेकिन वट सावित्री,आंवला नवमी,गंगा दशहरा महालक्ष्मी व्रत जैसे कई कई त्योहारों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. 
जी हाँ हमने इनके बारे में अपने परिवार परिवेश से जाना लेकिन इसके अलावा भी कई संस्कृतियों के बारे में जाना अपनी भाषा ,परिवेश का साहित्य पढ़ कर.
आज अगर बच्चों को बताया जाये कि देश के किसी हिस्से में लड़कियों कि स्थिति बहुत ख़राब है तो वो शायद विश्वास ही नहीं करें क्योंकि ये स्थिति उन्होंने देखी नहीं ओर पढ़ी भी नहीं.उन्होंने तो पढ़ा है कि लड़कियां १२-१३ साल कि होते ही अपने दोस्त बनाने लगती हैं उनके जीवन के सुख दुःख इन लड़कों से जुड़े होते हैं.उनके माता पिता उन्हें कुछ कहते ही नहीं है.वे जानते ही नहीं हैं कि हमारे देश में लड़कियों को घर से बाहर निकलने के लिए कितने लोगों कि इजाजत लेनी होती हैं या कम उम्र में शादी होना माँ बनना या एक बेमेल शादी को सारी उम्र निभाना कितना मुश्किल होता है. 
वे ये तो जानते हैं कि लोग बुरे होते हैं लेकिन कितने बुरे हो सकते हैं या हमारे यहाँ लोगों कि मानसिकता महिलाओं बच्चों को लेकर क्या होती है उसका उन्हें अंदाज़ा ही नहीं है, वे तो रापंजल, सिन्द्रेल्ला, स्नो व्हाइट में ही खोये हुए हैं जहाँ हर लड़की को बचाने एक राजकुमार आ जाता है.उन्हें क्या पता कि जाने कितनी ही लड़कियां कभी बच पाने के सपने देखे बिना ही दम तोड़ देती हैं. 
कितने ही लडके अपने माता पिता के सपनों का बोझ ढोते असमंजस में जिंदगी गुजार देते हैंऔर कितने ही माता पिता बच्चों कि बेरुखी के चलते बुढ़ापे के अकेलेपन से जूझते रहते हैं. 
खैर गलती बच्चों कि नहीं है.वे तो पढ़ते है और जो भी उन्हें मिले पढ़ते हैं या जो उन्हें पढने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है वो पढ़ते हैं लेकिन हम ही उनकी हिंदी साहित्य में रूचि जाग्रत नहीं कर पा रहे हैं .उन्हें अपने परिवेश को जानने समझने के लिए उचित सामग्री प्रदान नहीं करवा पा रहे हैं.
मेरा मानना है कि बच्चों के लिए अच्छी हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओँ के सामग्री उपलब्ध करवाना चाहिए जिससे वे अपने परिवेश से जुड़ सकें. 


3 टिप्‍पणियां:

  1. आपके सुझाव विचारणीय एवं अनुकरणीय हैं। लेकिन इसी देश के काबिल प्रोफेसर जिनके पुत्र-पुत्र वधू IAS हैं यह प्रचारित करते रहते हैं कि अङ्ग्रेज़ी न जानने वाला भूखा मर जाता है। शिक्षा को धन कमाने से जोड़ दिया गया है और अच्छी नौकरियाँ 'अँग्रेज़ीदाँ'हड़प जाते हैं। इस स्थिति को बदलना होगा।

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  2. स्थिति को बदलना असंभव सा है। अंग्रेजी भारत के सभी प्रांतों की सेतु भाषा है। भारतीय भाषाओं के अपने-अपने ईलाके हैं।विश्व भाषा के पद पर प्रतिष्ठित अंग्रेजी को हटाने की बात ही महत्वहीन लगती है। हां अपनी मातृभाषा के गुणगान करने में कोई बुराई नहीं है।यथार्थ से आंखे चुराना ठीक नहीं है। हिन्दी को ज्यादा अहमियत देने और सरकारी नौकरियों के लिये परिक्षाओं का माध्यम हिन्दी बनाने के सवाल पर कई सांसदों की श्वासनली अवरूद्ध हो जाती है।कौन करेगा हिन्दी की बुलंदी?

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