गुरुवार, 23 अगस्त 2012

बच्चे और कहानियाँ

आज बदलते समय के साथ बच्चों कि चाह उनकी आदतें और शौक भी काफी बदल गए हैं.उनके मनोरंजन के साधन अब किस्से कहानियां नहीं रहे  ..गली मोहल्ले में खेले जाने वाले खेलों कि जगह सर्व सुविधा युक्त स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स हो गए हैं.उनके बातों के विषय भी अब कहीं ज्यादा गंभीर तो कहीं ज्यादा परिपक्व हुए हैं.अब उन्हें नए नए गजेट्स के बारे में बतियाने में उसकी जानकारी हासिल करने में ज्यादा मज़ा आता है. जब आज के बच्चों को देखते हैं तो लगता है कि ये कहीं ज्यादा होशयार हैं.हमारे समय कि बचपन कि बातें अब आउट डेटेड लगती हैं.लेकिन क्या सच में ऐसा है??क्या सच में बच्चे अब वैसे खेल नहीं खेलना चाहते ?कहानियां नहीं सुनना चाहते?
अभी एक दिन जनरल नोलेज कि क्लास में हिंदी के नामी लेखकों कि जानकारी देते हुए मुंशी प्रेमचंद का नाम आया,तो उनकी कहानी पञ्च परमेश्वर कि बात निकल पड़ी.मैंने पूछा किस किसने ये कहानी पढ़ी है?कक्षा में सन्नाटा पसर गया.सातवीं में पढ़ने वाले बच्चों ने पञ्च परमेश्वर कहानी के बारे में सुना तक नहीं था.मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ.आजकल के प्राइवेट पब्लिकेशन अपनी पुस्तकों में नयापन भरने के लिए नामी पुराने साहित्यकारों कि कविता कहानियों को अलग करके नईं सामग्री से लुभा रहे हैं.इसलिए हिंदी साहित्य जगत के लेखकों को बच्चे जानते ही नहीं हैं उनकी अजर अमर रचनाएँ ओर उनसे मिलने वाली सीख गुम होती जा रही है.मैंने जब आश्चर्य प्रकट किया तो बच्चे कहानी सुनाने कि जिद्द करने लगे.अब कहानी को समझ कर दिमाग में उतार लेना और बात है लेकिन जब बच्चों को कहानी सुनाना है तब उसे पूरा सही शब्दों ओर घटनाओं के साथ सुनना चाहिए.इसलिए मैंने उनसे कहा कि अगली क्लास में उन्हें कहानी सुनाउंगी .
उस दिन सारी हिंदी टीचर्स से पूछा किसीके पास पञ्च परमेश्वर कहानी है क्या?लेकिन अफ़सोस किसी ने कहा घर पर है किसी ने कहा लायब्रेरी में देखो .मतलब छटवीं से १० वीं तक किसी भी हिंदी पाठ्य पुस्तक में पञ्च परमेश्वर कहानी नहीं थी.एक सप्ताह इसी तलाश में बीत गया इस बीच नेट पर आने का समय भी नहीं मिला .अगली क्लास में जाते ही बच्चे शोर मचाने लगे मैडम कहानी सुनाइए .सच कहूँ मुझे बड़ी शर्म आयी कि अपना वादा पूरा नहीं कर पाई.लेकिन अगली बार जरूर सुनाउंगी ये वादा किया. तसल्ली भी हुई कि बच्चे सच में कहानी सुनने को उत्सुक हैं.  

 खैर घर आ कर नेट कि शरण ली गयी ओर कहानी पढ़ी गयी.जाने कितने साल बाद इसे दोबारा पढ़ा था.मुझे भी याद ही नहीं था कि कहानी इतनी लम्बी है.लेकिन पढ़ते पढ़ते ख्याल आया कि क्या बच्चे इतनी लम्बी कहानी सुनेंगे? आजकल के फास्ट ट्रैक बच्चे स्लो मूवी ,सीरियल बातें स्लो कम्प्यूटर  किसी भी चीज़ का धीमे होना सहन नहीं कर सकते ये बच्चे इतने धीरे धीरे भावनाओं के साथ आगे बढ़ती इतनी लम्बी कहानी कैसे सुनेंगे?
खैर वादा किया था सो निभाना तो था.अगली क्लास में पहुँचते ही बच्चों ने फिर याद दिलाया मैडम कहानी?सुखद आश्चर्य था जिसने हिम्मत दी कि शायद ये बोर नहीं होंगे .
कहानी सुनाते हुए में ध्यान से सबके चेहरे पढ़ती रही कि कहीं कोई बोर तो नहीं हो रहा है?लेकिन जिस तन्मयता से उन्होंने पूरे आधे घंटे वह कहानी सुनी सच में हैरानी हुई.लगा समय भले आधुनिक हो गया है लेकिन बच्चे आखिर बच्चे ही हैं.उनके मन को कहानियां आज भी भातीं हैं शायद हम ही समय का बहाना बना कर उन्हें सुनाने से दूर भागते हैं.