मुझे याद है जब हम छोटे थे नवरात्री की अष्टमी से दिवाली की छुट्टियाँ लग जाती थीं। झाबुआ जिले के रानापुर में रहते पहली बार गरबे सीखे थे। दशहरे के दिन से रोज़ सुबह शाम घर के दरवाज़े पर गोबर से चौक लीप पर रंगोली बनाई जाती थी। छोटा सा गाँव था उसमे बहुत बड़े पद नाम वाला हमारा घर और आसपास बस्ती में रहने वाली मेरी सहेलियाँ। गोबर से लीपना आता नहीं था। दादी अड़ोस पड़ोस में किसी को आवाज़ दे कर गोबर मँगवाती और वह गोबर देने के साथ ही चौक लीप जाता। फिर शुरू होता एक सीध में गिन गिन कर बिंदी डालना रंगोली बनाना और रंग भरना। रंगोली बना कर तैयार हो कर निकल पड़ना मोहल्ले में सबकी रंगोली देखने।
मैंने जब रंगोली बनाना सीखा तब सबसे ज्यादा खुश दादी थीं। बहुत पहले बुआ रंगोली बनाती थीं फिर वे शादी हो कर अपने घर चली गई। मम्मी बुंदेलखंड से हैं वहाँ रंगोली बनाने का रिवाज़ नहीं है तो वे बना नहीं पाती थीं। ऐसे में दादी अड़ोस पड़ोस की लड़कियों को मनाती बुलाती थीं लेकिन त्यौहार पर किस के पास समय होता है? जब मैंने रंगोली बनाना सीखा दादी को परम संतोष था कि अब दीवाली दशहरा घर का आँगन सूना नहीं रहेगा। घर में बेटियों के महत्व को प्रतिपादित करती ये छोटी सी पर बहुत बड़ी बात थी। बहुएँ घर के रीति रिवाज़ों में रचती बसती हैं पर बेटियाँ तो उन रीति रिवाज़ों की घूँटी पी कर ही बड़ी होती हैं।
दीवाली की सफाई में पूरा घर लगा होता था। छत पर धूप में सामान रखना उठाना डिब्बे साफ़ करना जाले झाड़ना पलंग सोफे खिसका कर सफाई करना कितने ही काम हँसते खेलते हो जाते थे।
अर्ध वार्षिक परीक्षाएँ दिवाली बाद और वार्षिक परीक्षायें होली बाद होती थीं। होली भी बड़े मौज मस्ती में मनती थी गुझिया पपड़ी रंग पिचकारी।
एकल परिवार होने से और माता पिता दोनों के कामकाजी होने से त्यौहार मनाने में पहले जैसा उमंग उत्साह अब रहा नहीं। रही सही कसर स्कूल के एकेडेमिक टाइम टेबल ने पूरी कर दी। राखी के समय क्वार्टरली एग्जाम दिवाली या नवरात्री के समय अर्धवार्षिक (हाफ इयरली) और होली के समय वार्षिक परीक्षाएँ (एनुअल एग्जाम) . उस पर इल्ज़ाम ये कि आजकल के बच्चे तीज त्यौहार मनाना नहीं जानते उन्हें अपनी संस्कृति को जानने की फुर्सत ही नहीं है।
जब स्कूल में पढ़ाती थी छुट्टियों के लिये बच्चों को ढेर सारा होमवर्क देने का आदेश आ जाता था। बुरा लगता था मन नहीं होता था बच्चे भी उदास हो जाते थे। पर क्या करें मजबूरी थी क्योंकि क्या होमवर्क दिया गया है उसकी एक कॉपी जमा करवानी पड़ती थी। तब मैं होमवर्क करने का टाइम टेबल बना देती थी उन्हें बता देती थी किस दिन कितने प्रश्न हल करने हैं और त्यौहार से दो दिन पहले सब ख़त्म कर बेग टांड पर चढ़ा देना। कुछ बच्चे फिर भी उदास रहते मैम आपने तो कह दिया पर मम्मी नहीं मानेंगी। पता नहीं ये मम्मियाँ क्यों नहीं समझतीं कि बच्चों के लिए भी ब्रेक जरूरी है। पूरा मानसिक आराम जिसमे पढाई की कोई चिंता उनके दिमाग में न रहे।
वार्षिक परीक्षा के बीच होली पड़ी मैंने बच्चों से पूछा होली खेलना है ? बड़े उत्साह से आवाज़ आई यस मैम लेकिन। ये लेकिन तो अब हर त्यौहार के साथ जुड़ गया। मैंने कहा सुबह जल्दी उठना जैसे रोज़ स्कूल आने के लिए उठते हो। दूध पी कर दो घंटे पढ़ाई करना फिर नाश्ता करके दो घंटे होली खेलना। मम्मी मना करें तो कहना मैम ने कहा है होली जरूर खेलना नहीं तो एग्जाम में नंबर कट जायेंगे। दिन में थोड़ा आराम करना और शाम को फिर एक घंटे पढ़ाई करना।
एग्जाम के बाद रिजल्ट के लिए पेरेंट्स आये तो कइयों ने शिकायत की। "मैम आपने कहा था होली जरूर खेलना ? मैंने कितना मना किया पर ये माना ही नहीं।"
मैंने उनसे पूछा "आप अपने बचपन में होली खेलते थे ना फिर आपके बच्चे क्यों नहीं ?"
"लेकिन मैम एग्जाम।"
"हाँ एग्जाम हैं लेकिन उसने पढाई तो की ना ?"
"जी मैम सुबह दो घंटे बिना कहे पढाई की। कहने लगा मैम ने कहा है पहले दो घंटे में इतना कोर्स याद करना फिर होली खेलना।"
"फिर क्या दिक्कत है ? अगर वह पढ़ाई के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझ रहा है तो उसे त्यौहार मनाने से क्यों रोका जाये ? बच्चे जब तक अपने त्यौहार नहीं मनाएँगे तो उनके बारे में जानेंगे कैसे ? ऐसे तो उनकी जिंदगी कितनी नीरस हो जायेगी ? हमारे त्यौहार हमारी जिंदगी की आपाधापी को कम करके अपनों के साथ मिलने जुलने का जीवन की एकरसता को तोड़ने का काम करते हैं। आप क्यों ये स्वाभाविक जीवन प्रवाह रोकना चाहते हैं ? कम से कम प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के दौरान तो उन्हें भरपूर जीने दीजिये। जीवन की विविधता देखने समझने दीजिये।"
इस पीढ़ी के माता पिता ने जागरूक होने का अर्थ बच्चों की पढाई लिखाई हॉबी क्लासेज करियर खाने पीने का ध्यान रखने से तो लिया है लेकिन क्या हम उन्हें जीवन पद्धति रीति रिवाज़ त्यौहार तनाव दूर करने के प्राकृतिक तरीकों से दूर तो नहीं कर रहे हैं ?
कविता वर्मा
अब तो त्यौहार केवल स्म्रतियों में रह गए हैं..बच्चों पर पढाई का इतना बोझ बढ़ता जा रहा है कि वे त्योहारों का आनंद ले ही नहीं पाते...बहुत सार्थक प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंji sahi kaha ye bharat ki sanskrutik smruddhi ko khatm kar rahe hai ....
हटाएंआप ने बहुत अच्छा लिखा है । अब त्यौहार मानाने का वक्त ही नहीं है । सब वदल गया है ।
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जवाब देंहटाएं'कुछ अलग सा' पर सदा स्वागत है आपका
जवाब देंहटाएंसहरी जीवन नर्क से कम नहीं हैं। हर काम करने की जल्दी में जीवन बहुत पीछे छुठ जाता हैं। कभी-कहीं हमसे कोई अचानक पूछ ले की पिछली बार कब हँसे थे, तो जवाब देने में पसीना आने लगता हैं। बच्चे पढ़ाई में हम दफ्तर में , यहीं तक सिमट कर रह गया हैं जीवन।
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