बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

कहानी शेर और चूहा

शेर जंगल में आराम कर रहा था की चूहा उसपर चढ़ गया और शरारत करने लगा,  शेर की आँख खुल गयी और उसने चूहे को पकड़ लिया ..चूहे ने फिर क्या किया कैसे अपनी जान बचाई सुनिए कहानी शेर और चूहा    

https://www.youtube.com/watch?v=VAZNI1bj6fQ

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

कहानी अपना काम आप करो

चिड़िया के बच्चे डरे हुए थे. वे अभी उड़ना नहीं जानते थे लेकिन किसान तो खेत की फसल कटवाना चाहता था ,अब ऐसे में वे कहा जाते? जब चिड़िया घर लौटी वह निश्चिन्त थी आखिर क्यों??

https://www.youtube.com/watch?v=VWOkaNkUm-g

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

सुनो कहानी मूर्तिकार की कमी

वह बहुत कुशल मूर्तिकार था। अपनी कला का इस्तेमाल करके उसने खुद को बचा तो लिया लेकिन फिर क्या हुआ कि वह पकड़ा गया ...जानने के लिए सुनिए कहानी मूर्तिकार की कमी

https://www.youtube.com/watch?v=thPJChUxIko

गुरुवार, 31 जनवरी 2013

कहानी खरगोश की चतुराई

 कहानियाँ बच्चों के विकास में एक महत्वपूर्ण रोल अदा करती हैं।आजके व्यस्त समय में माता पिता के पास इतना समय नहीं है की वे बच्चों को कहानियाँ सुनाये।परिवार एकल हो गए दादा दादी के पास बैठने का बच्चों के पास समय नहीं है। टी वी, कंप्यूटर,पढ़ाई बच्चों को इतनी मोहलत नहीं देते की वे कहानियाँ सुन सकें। बच्चों के लिए एक छोटा सा प्रयास किया है जिससे उनके बचपन को इस अनद से भी भरा जा सके।
आशा है आपको ये प्रयास पसंद आएगा और आप अपने और अपने आस पास के बच्चों तक इसे पहुचाएंगे। https://www.youtube.com/watch?v=whYRjbPfFnM


रविवार, 16 सितंबर 2012

आज में बहुत खुश हूँ..

आज में बहुत खुश हूँ...बात ही कुछ ऐसी है...अब आप कह सकते हैं की इसमें कौन बड़ी बात है ये तो होता ही रहता है..लेकिन मेरे लिए बड़ी बात है तो है ..में खुश हूँ  तो हूँ संतुष्ट हूँ तो हूँ.
चलिए आपको भी बता ही देती हूँ मेरी ख़ुशी का राज़.मेरी क्लास में एक लड़की है.नाम....चलिए कहें नेह ..जब मैंने इस क्लास में पढ़ाना शुरू किया तो देखा ये लड़की चुपचाप सी बैठी रहती है कुछ समझाओ तब भी उसके चेहरे और आँखों में कुछ ना समझने के से भाव रहते हैं.दो चार बार उसके पास खड़े हो कर उसे सवाल हल करते देखा तो पाया की उसे वाकई कुछ समझ नहीं आ रहा है.कुछ सवालों को साथ में हल करवाया तो देखा की उसे तो चार ओर सात जोड़ने में भी समय लगता है.सच कहूँ एक हताशा सी छा गयी लगा बाबा रे कितनी मेहनत करना पड़ेगी इसके साथ.अब ३६ बच्चों  की क्लास में एक के साथ इतना समय बिताना संभव भी तो नहीं होता. लेकिन अच्छा नहीं लगा सोचा उसे थोडा अतिरिक्त समय दूँगी और कम से कम एवरेज तक लाने की कोशिश तो कर ही सकती हूँ. 
काम कठिन था.उसकी पिछले साल वाली मेम से उसके बारे में पूछा तो जवाब मिला की उसे कुछ नहीं आता मैंने उसे सारे साल बोर्ड के सामने खड़ा करके समझाया लेकिन उसने कुछ नहीं किया.लेकिन इससे ये तो समझ आया की क्लास में उसके इतने चुप रहने का कारण क्या है. शायद कुछ नहीं आता इस वजह से सबके आकर्षण का केंद्र बनने का डर. 
एक दिन कुछ सवाल घर से हल करके लाने को कहे . और उससे खास तौर पर कहा की बेटा बुक में इस पेज पर इनके उदहारण हैं यदि कोई परेशानी हो तो उन उदाहरणों को पढना. दूसरे दिन जब उसने कॉपी दिखाई तो आश्चर्य हुआ की उसने सभी सवाल सही हल किये थे.मैंने उसे क्लास में सबके सामने खूब शाबाशी दी .उसके लिए तालियाँ बजवाईं.उस दिन २ महिने में पहली बार उसके चेहरे पर मुस्कान दिखाई दी.उस मुस्कान ने उसका ही नहीं मेरा भी आत्मबल बढा दिया..
एक दो दिन बाद ही किसी बात पर मैंने बच्चों को कहानी सुनाई .पाणिनि की कहानी करत करत अभ्यास के ...रसरी  आवत जात है सिल पर होत  निशान..मैंने देखा वह बहुत ध्यान से कहानी सुन रही थी..कहानी के आखिर में एक पल को मैंने उसकी आँखों में देखा ओर कहा की किसी के लिए भी कोई काम मुश्किल नहीं है.उसने आँखों ही आँखों में उस बात को स्वीकारने का इशारा किया..और फिर में सभी बच्चों की और मुखातिब हो गयी. 
अब होने ये लगा की की जब में क्लास में पूछती की किसे ये समझ नहीं आया तो वह धीरे से हाथ उठा देती..और वो भी बिना इधर उधर देखे. पूछने का उसका संकोच ख़त्म होने लगा था.  जब बच्चे इस बात के लिए हाथ उठते हैं की उन्हें समझ नहीं आता तो उन्हें वैरी गुड जरूर कहती हूँ साथ ही ये भी की पूछना बहुत अच्छी आदत है.
एक दिन वह मुझे कोरिडोर में मिली उससे पूछा बेटा पढाई कैसी चल रही है. तुम अच्छी कोशिश कर रही हो..बस ऐसे ही प्रेक्टिस करती रहो इस बार ऐसा रिजल्ट  लायेंगे की सब देखते रह जायेंगे..क्यों ठीक है ना??और वह मुस्कुरा दी.
आज मैंने एक टेस्ट लिया और उस टेस्ट में नेह पास हो गयी जी सिर्फ पास ही नहीं हुई बहुत अच्छे नंबरों से पास हो गयी.आप मेरी ख़ुशी का अंदाज़ा नहीं लगा सकते..उस लड़की ने कर दिखाया..और शायद पहली बार वह मेथ्स में पास हुई है ..बस मुझे इंतज़ार है कल का जब में उसे उसकी कॉपी दूँगी ओर उसकी आँखों में फिर वो मुस्कान देखूंगी..

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

बच्चे और कहानियाँ

आज बदलते समय के साथ बच्चों कि चाह उनकी आदतें और शौक भी काफी बदल गए हैं.उनके मनोरंजन के साधन अब किस्से कहानियां नहीं रहे  ..गली मोहल्ले में खेले जाने वाले खेलों कि जगह सर्व सुविधा युक्त स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स हो गए हैं.उनके बातों के विषय भी अब कहीं ज्यादा गंभीर तो कहीं ज्यादा परिपक्व हुए हैं.अब उन्हें नए नए गजेट्स के बारे में बतियाने में उसकी जानकारी हासिल करने में ज्यादा मज़ा आता है. जब आज के बच्चों को देखते हैं तो लगता है कि ये कहीं ज्यादा होशयार हैं.हमारे समय कि बचपन कि बातें अब आउट डेटेड लगती हैं.लेकिन क्या सच में ऐसा है??क्या सच में बच्चे अब वैसे खेल नहीं खेलना चाहते ?कहानियां नहीं सुनना चाहते?
अभी एक दिन जनरल नोलेज कि क्लास में हिंदी के नामी लेखकों कि जानकारी देते हुए मुंशी प्रेमचंद का नाम आया,तो उनकी कहानी पञ्च परमेश्वर कि बात निकल पड़ी.मैंने पूछा किस किसने ये कहानी पढ़ी है?कक्षा में सन्नाटा पसर गया.सातवीं में पढ़ने वाले बच्चों ने पञ्च परमेश्वर कहानी के बारे में सुना तक नहीं था.मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ.आजकल के प्राइवेट पब्लिकेशन अपनी पुस्तकों में नयापन भरने के लिए नामी पुराने साहित्यकारों कि कविता कहानियों को अलग करके नईं सामग्री से लुभा रहे हैं.इसलिए हिंदी साहित्य जगत के लेखकों को बच्चे जानते ही नहीं हैं उनकी अजर अमर रचनाएँ ओर उनसे मिलने वाली सीख गुम होती जा रही है.मैंने जब आश्चर्य प्रकट किया तो बच्चे कहानी सुनाने कि जिद्द करने लगे.अब कहानी को समझ कर दिमाग में उतार लेना और बात है लेकिन जब बच्चों को कहानी सुनाना है तब उसे पूरा सही शब्दों ओर घटनाओं के साथ सुनना चाहिए.इसलिए मैंने उनसे कहा कि अगली क्लास में उन्हें कहानी सुनाउंगी .
उस दिन सारी हिंदी टीचर्स से पूछा किसीके पास पञ्च परमेश्वर कहानी है क्या?लेकिन अफ़सोस किसी ने कहा घर पर है किसी ने कहा लायब्रेरी में देखो .मतलब छटवीं से १० वीं तक किसी भी हिंदी पाठ्य पुस्तक में पञ्च परमेश्वर कहानी नहीं थी.एक सप्ताह इसी तलाश में बीत गया इस बीच नेट पर आने का समय भी नहीं मिला .अगली क्लास में जाते ही बच्चे शोर मचाने लगे मैडम कहानी सुनाइए .सच कहूँ मुझे बड़ी शर्म आयी कि अपना वादा पूरा नहीं कर पाई.लेकिन अगली बार जरूर सुनाउंगी ये वादा किया. तसल्ली भी हुई कि बच्चे सच में कहानी सुनने को उत्सुक हैं.  

 खैर घर आ कर नेट कि शरण ली गयी ओर कहानी पढ़ी गयी.जाने कितने साल बाद इसे दोबारा पढ़ा था.मुझे भी याद ही नहीं था कि कहानी इतनी लम्बी है.लेकिन पढ़ते पढ़ते ख्याल आया कि क्या बच्चे इतनी लम्बी कहानी सुनेंगे? आजकल के फास्ट ट्रैक बच्चे स्लो मूवी ,सीरियल बातें स्लो कम्प्यूटर  किसी भी चीज़ का धीमे होना सहन नहीं कर सकते ये बच्चे इतने धीरे धीरे भावनाओं के साथ आगे बढ़ती इतनी लम्बी कहानी कैसे सुनेंगे?
खैर वादा किया था सो निभाना तो था.अगली क्लास में पहुँचते ही बच्चों ने फिर याद दिलाया मैडम कहानी?सुखद आश्चर्य था जिसने हिम्मत दी कि शायद ये बोर नहीं होंगे .
कहानी सुनाते हुए में ध्यान से सबके चेहरे पढ़ती रही कि कहीं कोई बोर तो नहीं हो रहा है?लेकिन जिस तन्मयता से उन्होंने पूरे आधे घंटे वह कहानी सुनी सच में हैरानी हुई.लगा समय भले आधुनिक हो गया है लेकिन बच्चे आखिर बच्चे ही हैं.उनके मन को कहानियां आज भी भातीं हैं शायद हम ही समय का बहाना बना कर उन्हें सुनाने से दूर भागते हैं. 

रविवार, 22 जुलाई 2012

क्या मार्क्स इतने जरूरी हैं???

स्कूल खुलने के एक दिन पहले मेरी बेटी एक अजीब सी बैचेनी से भर गयी.बार बार कहती कल स्कूल जाना है लेकिन स्वर में उत्साह ना था बल्कि एक तनाव एक बैचेनी.ऐसा पहले कभी ना हुआ था इतने साल की स्कूलिंग में ये पहला मौका था जब की स्कूल को लेकर उसमे कोई तनाव था.मैंने उससे बात की थोडा उसका ध्यान हटाने की कोशिश भी की लेकिन स्कूल तो जाना ही था. 

दूसरे दिन में बैचेनी से उसके स्कूल से लौटने का इंतजार कर रही थी. जैसे ही वह आयी मैंने पूछा कैसा रहा पहला दिन.सुनते ही वह चिढ  गयी मम्मी अभी स्कूल की कोई बात नहीं. खैर उस समय उसका ध्यान दूसरी बातों में लगाया ताकि वह रिलेक्स हो जाये. आखिर रात में मैंने पूछ ही लिया हुआ क्या??मन में भरा गुबार जैसे निकलने को बेताब था.बोली मम्मी स्कूल वाले भी सारे समय लेक्चर ही सुनाते रहते हैं. अब इस साल हमारे स्कूल की एक लड़की मेरिट लिस्ट में टॉप पर आ गयी तो सारे पीरियड में सारे टीचर्स यही कहते रहे की तुम्हारे सीनियर्स ने ऐसा किया इतने मार्क्स लाये इसलिए तुम्हे भी इतनी मेहनत करना है 

स्कूल का पहला दिन १० वीं ओर १२ वीं के शानदार रिजल्ट की गर्वित उद्घोषणा के साथ ही आने वाले सत्र में बच्चों को बहुत मेहनत करके आगे बढ़ने की सलाह सीख दे डाली गयी.उद्देश्य निःसंदेह उन्हें अच्छे मार्क्स के साथ पास होने के लिए प्रेरित करना था लेकिन जब प्रेरणा देने का काम लेक्चर बन जाये ओर बच्चों पर दबाव डालने लगे तब एक गंभीर विषय हो जाता है. 
उस दिन तो उसे जैसे तैसे समझाया कि ऐसा तुम्हे ओर अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित करने के लिए कहा गया. एक आदर्श सामने हो तो पता होता है कि कितनी कैसी मेहनत करके कहाँ पहुंचना है. लेकिन ये सिलसिला उसी दिन ख़त्म नहीं हुआ. पिछले लगभग एक महिने से लगभग रोज़ कि ही ये कहानी हो गयी. 
उसके प्रश्न भी उचित ही है -उसका कहना है कि मम्मी अगर हमें अच्छे मार्क्स लाना है तो उसके लिए हमें पढ़ाना चाहिए ना कि क्लास में सिर्फ लेक्चर देना चाहिए.जिसमे अभी जब कि फर्मेतिव असेसमेंट सर पर है टीचर्स रोज़ ही ये सुनाते हैं कि में ऐसे मार्क्स नहीं दूंगा वैसे रियायत नहीं दूंगा वगैरह वगैरह. रोज़ रोज़ एक जैसा लेक्चर आखिर कोई कैसे सुन सकता है वो भी रोज़ दिन में ५ विषयों के ५ टीचर्स से ५ बार. 

नतीजा ये है कि सारा दिन पढ़ने के बाद भी उसका तनाव एक्सट्रीम पर होता है इस डर के साथ कि मुझे कुछ याद ही नहीं है में एक्जाम में क्या करूंगी.जब उसे समझाया जाता है कि बेटा कोई चीज़ ऐसे भूली नहीं जाती एक्साम में सब याद आ जाता है, तुम सिर्फ अपनी पढाई करो मार्क्स कि चिंता छोड़ दो वो जैसे भी आयें बड़ी बात नहीं है तो वह चिढ जाती है.
नतीजा अब वह स्कूल ना जाने के बहाने तलाशती है लेकिन उपस्तिथि कम होने का डर भी सर पर सवार रहता है तो कई बार ना चाहते हुए भी जाना होता है. 
इन ३० दिनों में जिस तरह का तनाव उसमे देखने को मिल रहा है वह पिछले १२ सालों में कभी नहीं देखा वह भी जब जब कि वह स्कूल कि हर बात मुझे बताती है जिससे कम से कम उसका मन हल्का हो जाता है. 
लेकिन में सोचती हूँ उन बच्चों का क्या होता होगा जिनके माता पिता भी अच्छे मार्क्स को लेकर उनके पीछे पड़े रहते हैं?वो बच्चे तो बेचारे घर में ऐसी बातें बताते भी नहीं होंगे सारा दिन स्कूल में ओर फिर घर में भी रोज़ वही लेक्चर सुन सुन कर उनका क्या हाल होता होगा? 
अभी कुछ दिनों पहले दस्तक क्राइम पेट्रोल पर ऐसा ही एक केस देखने को मिला था जिसमे घर ओर स्कूल के दबाव से परेशान हो कर १०वी की एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली थी. बच्चों में तनाव इस कदर बढ़ गया है ओर इसे बांटने  का उनके पास कोई जरिया भी नहीं है.
फिर जो बच्चे IIT या अन्य प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहें है उनका तो भगवान ही मालिक है. 
एक तरफ हम शिक्षा पद्धति में बदलाव कि बात करते हैं ताकि बच्चे मार्क्स कि आपाधापी से निकल सकें .दूसरी ओर आसान बनाये गए सिस्टम को फिर मार्क्स के साथ जोड़ कर उनका तनाव पहले से भी अधिक बढा दिया गया है. 
पहले जहाँ साल में सिर्फ ३ मेन एक्साम्स होते थे अब सारा साल ही F A या S A चलते रहते हैं. जिससे बच्चे जूझते रहते हैं .
स्कूल मेरिट लिस्ट से अपनी दुकानदारी चलाते हैं  अपने स्टार बच्चों को अपने विज्ञापनों में नाम फोटो ओर परसेंट के साथ प्रकाशित करके अगले साल बेहतर परीक्षा परिणाम के वादे के साथ ज्यादा नए एडमिशन पाते हैं ओर अगली बेच के बच्चों के लिए एक नयी चुनौती रख देते हैं जिसके लिए लगातार दबाव बनाते हैं ताकि अगले साल के विज्ञापन के लिए उन्हें नए स्टार मिल सकें ओर उनकी दुकानदारी चलती रहे. 
होना तो ये चाहिए कि अब स्कूल्स  के विज्ञापनों में मेरिट लिस्ट के नाम फोटो ओर परसेंट के प्रकाशन पर रोक लगनी चाहिए वैसे भी बच्चे का परफोर्मेंस उसका निजी है स्कूल ने उसे सिर्फ गाइड किया है जिसकी पूरी कीमत वसूली है. उसमे से भी ज्यादातर बच्चे कोचिंग में अपनी पढाई पूरी करते हैं.कई स्कूल्स के पास तो पढ़ने के लिए ढंग के टीचर्स भी नहीं है फिर वे कैसे बच्चे के रिजल्ट पर अपना दावा पेश कर सकते हैं?