रविवार, 16 सितंबर 2012

आज में बहुत खुश हूँ..

आज में बहुत खुश हूँ...बात ही कुछ ऐसी है...अब आप कह सकते हैं की इसमें कौन बड़ी बात है ये तो होता ही रहता है..लेकिन मेरे लिए बड़ी बात है तो है ..में खुश हूँ  तो हूँ संतुष्ट हूँ तो हूँ.
चलिए आपको भी बता ही देती हूँ मेरी ख़ुशी का राज़.मेरी क्लास में एक लड़की है.नाम....चलिए कहें नेह ..जब मैंने इस क्लास में पढ़ाना शुरू किया तो देखा ये लड़की चुपचाप सी बैठी रहती है कुछ समझाओ तब भी उसके चेहरे और आँखों में कुछ ना समझने के से भाव रहते हैं.दो चार बार उसके पास खड़े हो कर उसे सवाल हल करते देखा तो पाया की उसे वाकई कुछ समझ नहीं आ रहा है.कुछ सवालों को साथ में हल करवाया तो देखा की उसे तो चार ओर सात जोड़ने में भी समय लगता है.सच कहूँ एक हताशा सी छा गयी लगा बाबा रे कितनी मेहनत करना पड़ेगी इसके साथ.अब ३६ बच्चों  की क्लास में एक के साथ इतना समय बिताना संभव भी तो नहीं होता. लेकिन अच्छा नहीं लगा सोचा उसे थोडा अतिरिक्त समय दूँगी और कम से कम एवरेज तक लाने की कोशिश तो कर ही सकती हूँ. 
काम कठिन था.उसकी पिछले साल वाली मेम से उसके बारे में पूछा तो जवाब मिला की उसे कुछ नहीं आता मैंने उसे सारे साल बोर्ड के सामने खड़ा करके समझाया लेकिन उसने कुछ नहीं किया.लेकिन इससे ये तो समझ आया की क्लास में उसके इतने चुप रहने का कारण क्या है. शायद कुछ नहीं आता इस वजह से सबके आकर्षण का केंद्र बनने का डर. 
एक दिन कुछ सवाल घर से हल करके लाने को कहे . और उससे खास तौर पर कहा की बेटा बुक में इस पेज पर इनके उदहारण हैं यदि कोई परेशानी हो तो उन उदाहरणों को पढना. दूसरे दिन जब उसने कॉपी दिखाई तो आश्चर्य हुआ की उसने सभी सवाल सही हल किये थे.मैंने उसे क्लास में सबके सामने खूब शाबाशी दी .उसके लिए तालियाँ बजवाईं.उस दिन २ महिने में पहली बार उसके चेहरे पर मुस्कान दिखाई दी.उस मुस्कान ने उसका ही नहीं मेरा भी आत्मबल बढा दिया..
एक दो दिन बाद ही किसी बात पर मैंने बच्चों को कहानी सुनाई .पाणिनि की कहानी करत करत अभ्यास के ...रसरी  आवत जात है सिल पर होत  निशान..मैंने देखा वह बहुत ध्यान से कहानी सुन रही थी..कहानी के आखिर में एक पल को मैंने उसकी आँखों में देखा ओर कहा की किसी के लिए भी कोई काम मुश्किल नहीं है.उसने आँखों ही आँखों में उस बात को स्वीकारने का इशारा किया..और फिर में सभी बच्चों की और मुखातिब हो गयी. 
अब होने ये लगा की की जब में क्लास में पूछती की किसे ये समझ नहीं आया तो वह धीरे से हाथ उठा देती..और वो भी बिना इधर उधर देखे. पूछने का उसका संकोच ख़त्म होने लगा था.  जब बच्चे इस बात के लिए हाथ उठते हैं की उन्हें समझ नहीं आता तो उन्हें वैरी गुड जरूर कहती हूँ साथ ही ये भी की पूछना बहुत अच्छी आदत है.
एक दिन वह मुझे कोरिडोर में मिली उससे पूछा बेटा पढाई कैसी चल रही है. तुम अच्छी कोशिश कर रही हो..बस ऐसे ही प्रेक्टिस करती रहो इस बार ऐसा रिजल्ट  लायेंगे की सब देखते रह जायेंगे..क्यों ठीक है ना??और वह मुस्कुरा दी.
आज मैंने एक टेस्ट लिया और उस टेस्ट में नेह पास हो गयी जी सिर्फ पास ही नहीं हुई बहुत अच्छे नंबरों से पास हो गयी.आप मेरी ख़ुशी का अंदाज़ा नहीं लगा सकते..उस लड़की ने कर दिखाया..और शायद पहली बार वह मेथ्स में पास हुई है ..बस मुझे इंतज़ार है कल का जब में उसे उसकी कॉपी दूँगी ओर उसकी आँखों में फिर वो मुस्कान देखूंगी..

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

बच्चे और कहानियाँ

आज बदलते समय के साथ बच्चों कि चाह उनकी आदतें और शौक भी काफी बदल गए हैं.उनके मनोरंजन के साधन अब किस्से कहानियां नहीं रहे  ..गली मोहल्ले में खेले जाने वाले खेलों कि जगह सर्व सुविधा युक्त स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स हो गए हैं.उनके बातों के विषय भी अब कहीं ज्यादा गंभीर तो कहीं ज्यादा परिपक्व हुए हैं.अब उन्हें नए नए गजेट्स के बारे में बतियाने में उसकी जानकारी हासिल करने में ज्यादा मज़ा आता है. जब आज के बच्चों को देखते हैं तो लगता है कि ये कहीं ज्यादा होशयार हैं.हमारे समय कि बचपन कि बातें अब आउट डेटेड लगती हैं.लेकिन क्या सच में ऐसा है??क्या सच में बच्चे अब वैसे खेल नहीं खेलना चाहते ?कहानियां नहीं सुनना चाहते?
अभी एक दिन जनरल नोलेज कि क्लास में हिंदी के नामी लेखकों कि जानकारी देते हुए मुंशी प्रेमचंद का नाम आया,तो उनकी कहानी पञ्च परमेश्वर कि बात निकल पड़ी.मैंने पूछा किस किसने ये कहानी पढ़ी है?कक्षा में सन्नाटा पसर गया.सातवीं में पढ़ने वाले बच्चों ने पञ्च परमेश्वर कहानी के बारे में सुना तक नहीं था.मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ.आजकल के प्राइवेट पब्लिकेशन अपनी पुस्तकों में नयापन भरने के लिए नामी पुराने साहित्यकारों कि कविता कहानियों को अलग करके नईं सामग्री से लुभा रहे हैं.इसलिए हिंदी साहित्य जगत के लेखकों को बच्चे जानते ही नहीं हैं उनकी अजर अमर रचनाएँ ओर उनसे मिलने वाली सीख गुम होती जा रही है.मैंने जब आश्चर्य प्रकट किया तो बच्चे कहानी सुनाने कि जिद्द करने लगे.अब कहानी को समझ कर दिमाग में उतार लेना और बात है लेकिन जब बच्चों को कहानी सुनाना है तब उसे पूरा सही शब्दों ओर घटनाओं के साथ सुनना चाहिए.इसलिए मैंने उनसे कहा कि अगली क्लास में उन्हें कहानी सुनाउंगी .
उस दिन सारी हिंदी टीचर्स से पूछा किसीके पास पञ्च परमेश्वर कहानी है क्या?लेकिन अफ़सोस किसी ने कहा घर पर है किसी ने कहा लायब्रेरी में देखो .मतलब छटवीं से १० वीं तक किसी भी हिंदी पाठ्य पुस्तक में पञ्च परमेश्वर कहानी नहीं थी.एक सप्ताह इसी तलाश में बीत गया इस बीच नेट पर आने का समय भी नहीं मिला .अगली क्लास में जाते ही बच्चे शोर मचाने लगे मैडम कहानी सुनाइए .सच कहूँ मुझे बड़ी शर्म आयी कि अपना वादा पूरा नहीं कर पाई.लेकिन अगली बार जरूर सुनाउंगी ये वादा किया. तसल्ली भी हुई कि बच्चे सच में कहानी सुनने को उत्सुक हैं.  

 खैर घर आ कर नेट कि शरण ली गयी ओर कहानी पढ़ी गयी.जाने कितने साल बाद इसे दोबारा पढ़ा था.मुझे भी याद ही नहीं था कि कहानी इतनी लम्बी है.लेकिन पढ़ते पढ़ते ख्याल आया कि क्या बच्चे इतनी लम्बी कहानी सुनेंगे? आजकल के फास्ट ट्रैक बच्चे स्लो मूवी ,सीरियल बातें स्लो कम्प्यूटर  किसी भी चीज़ का धीमे होना सहन नहीं कर सकते ये बच्चे इतने धीरे धीरे भावनाओं के साथ आगे बढ़ती इतनी लम्बी कहानी कैसे सुनेंगे?
खैर वादा किया था सो निभाना तो था.अगली क्लास में पहुँचते ही बच्चों ने फिर याद दिलाया मैडम कहानी?सुखद आश्चर्य था जिसने हिम्मत दी कि शायद ये बोर नहीं होंगे .
कहानी सुनाते हुए में ध्यान से सबके चेहरे पढ़ती रही कि कहीं कोई बोर तो नहीं हो रहा है?लेकिन जिस तन्मयता से उन्होंने पूरे आधे घंटे वह कहानी सुनी सच में हैरानी हुई.लगा समय भले आधुनिक हो गया है लेकिन बच्चे आखिर बच्चे ही हैं.उनके मन को कहानियां आज भी भातीं हैं शायद हम ही समय का बहाना बना कर उन्हें सुनाने से दूर भागते हैं. 

रविवार, 22 जुलाई 2012

क्या मार्क्स इतने जरूरी हैं???

स्कूल खुलने के एक दिन पहले मेरी बेटी एक अजीब सी बैचेनी से भर गयी.बार बार कहती कल स्कूल जाना है लेकिन स्वर में उत्साह ना था बल्कि एक तनाव एक बैचेनी.ऐसा पहले कभी ना हुआ था इतने साल की स्कूलिंग में ये पहला मौका था जब की स्कूल को लेकर उसमे कोई तनाव था.मैंने उससे बात की थोडा उसका ध्यान हटाने की कोशिश भी की लेकिन स्कूल तो जाना ही था. 

दूसरे दिन में बैचेनी से उसके स्कूल से लौटने का इंतजार कर रही थी. जैसे ही वह आयी मैंने पूछा कैसा रहा पहला दिन.सुनते ही वह चिढ  गयी मम्मी अभी स्कूल की कोई बात नहीं. खैर उस समय उसका ध्यान दूसरी बातों में लगाया ताकि वह रिलेक्स हो जाये. आखिर रात में मैंने पूछ ही लिया हुआ क्या??मन में भरा गुबार जैसे निकलने को बेताब था.बोली मम्मी स्कूल वाले भी सारे समय लेक्चर ही सुनाते रहते हैं. अब इस साल हमारे स्कूल की एक लड़की मेरिट लिस्ट में टॉप पर आ गयी तो सारे पीरियड में सारे टीचर्स यही कहते रहे की तुम्हारे सीनियर्स ने ऐसा किया इतने मार्क्स लाये इसलिए तुम्हे भी इतनी मेहनत करना है 

स्कूल का पहला दिन १० वीं ओर १२ वीं के शानदार रिजल्ट की गर्वित उद्घोषणा के साथ ही आने वाले सत्र में बच्चों को बहुत मेहनत करके आगे बढ़ने की सलाह सीख दे डाली गयी.उद्देश्य निःसंदेह उन्हें अच्छे मार्क्स के साथ पास होने के लिए प्रेरित करना था लेकिन जब प्रेरणा देने का काम लेक्चर बन जाये ओर बच्चों पर दबाव डालने लगे तब एक गंभीर विषय हो जाता है. 
उस दिन तो उसे जैसे तैसे समझाया कि ऐसा तुम्हे ओर अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित करने के लिए कहा गया. एक आदर्श सामने हो तो पता होता है कि कितनी कैसी मेहनत करके कहाँ पहुंचना है. लेकिन ये सिलसिला उसी दिन ख़त्म नहीं हुआ. पिछले लगभग एक महिने से लगभग रोज़ कि ही ये कहानी हो गयी. 
उसके प्रश्न भी उचित ही है -उसका कहना है कि मम्मी अगर हमें अच्छे मार्क्स लाना है तो उसके लिए हमें पढ़ाना चाहिए ना कि क्लास में सिर्फ लेक्चर देना चाहिए.जिसमे अभी जब कि फर्मेतिव असेसमेंट सर पर है टीचर्स रोज़ ही ये सुनाते हैं कि में ऐसे मार्क्स नहीं दूंगा वैसे रियायत नहीं दूंगा वगैरह वगैरह. रोज़ रोज़ एक जैसा लेक्चर आखिर कोई कैसे सुन सकता है वो भी रोज़ दिन में ५ विषयों के ५ टीचर्स से ५ बार. 

नतीजा ये है कि सारा दिन पढ़ने के बाद भी उसका तनाव एक्सट्रीम पर होता है इस डर के साथ कि मुझे कुछ याद ही नहीं है में एक्जाम में क्या करूंगी.जब उसे समझाया जाता है कि बेटा कोई चीज़ ऐसे भूली नहीं जाती एक्साम में सब याद आ जाता है, तुम सिर्फ अपनी पढाई करो मार्क्स कि चिंता छोड़ दो वो जैसे भी आयें बड़ी बात नहीं है तो वह चिढ जाती है.
नतीजा अब वह स्कूल ना जाने के बहाने तलाशती है लेकिन उपस्तिथि कम होने का डर भी सर पर सवार रहता है तो कई बार ना चाहते हुए भी जाना होता है. 
इन ३० दिनों में जिस तरह का तनाव उसमे देखने को मिल रहा है वह पिछले १२ सालों में कभी नहीं देखा वह भी जब जब कि वह स्कूल कि हर बात मुझे बताती है जिससे कम से कम उसका मन हल्का हो जाता है. 
लेकिन में सोचती हूँ उन बच्चों का क्या होता होगा जिनके माता पिता भी अच्छे मार्क्स को लेकर उनके पीछे पड़े रहते हैं?वो बच्चे तो बेचारे घर में ऐसी बातें बताते भी नहीं होंगे सारा दिन स्कूल में ओर फिर घर में भी रोज़ वही लेक्चर सुन सुन कर उनका क्या हाल होता होगा? 
अभी कुछ दिनों पहले दस्तक क्राइम पेट्रोल पर ऐसा ही एक केस देखने को मिला था जिसमे घर ओर स्कूल के दबाव से परेशान हो कर १०वी की एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली थी. बच्चों में तनाव इस कदर बढ़ गया है ओर इसे बांटने  का उनके पास कोई जरिया भी नहीं है.
फिर जो बच्चे IIT या अन्य प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहें है उनका तो भगवान ही मालिक है. 
एक तरफ हम शिक्षा पद्धति में बदलाव कि बात करते हैं ताकि बच्चे मार्क्स कि आपाधापी से निकल सकें .दूसरी ओर आसान बनाये गए सिस्टम को फिर मार्क्स के साथ जोड़ कर उनका तनाव पहले से भी अधिक बढा दिया गया है. 
पहले जहाँ साल में सिर्फ ३ मेन एक्साम्स होते थे अब सारा साल ही F A या S A चलते रहते हैं. जिससे बच्चे जूझते रहते हैं .
स्कूल मेरिट लिस्ट से अपनी दुकानदारी चलाते हैं  अपने स्टार बच्चों को अपने विज्ञापनों में नाम फोटो ओर परसेंट के साथ प्रकाशित करके अगले साल बेहतर परीक्षा परिणाम के वादे के साथ ज्यादा नए एडमिशन पाते हैं ओर अगली बेच के बच्चों के लिए एक नयी चुनौती रख देते हैं जिसके लिए लगातार दबाव बनाते हैं ताकि अगले साल के विज्ञापन के लिए उन्हें नए स्टार मिल सकें ओर उनकी दुकानदारी चलती रहे. 
होना तो ये चाहिए कि अब स्कूल्स  के विज्ञापनों में मेरिट लिस्ट के नाम फोटो ओर परसेंट के प्रकाशन पर रोक लगनी चाहिए वैसे भी बच्चे का परफोर्मेंस उसका निजी है स्कूल ने उसे सिर्फ गाइड किया है जिसकी पूरी कीमत वसूली है. उसमे से भी ज्यादातर बच्चे कोचिंग में अपनी पढाई पूरी करते हैं.कई स्कूल्स के पास तो पढ़ने के लिए ढंग के टीचर्स भी नहीं है फिर वे कैसे बच्चे के रिजल्ट पर अपना दावा पेश कर सकते हैं?

शनिवार, 7 जुलाई 2012

बच्चों में पढने कि आदत

टी वी कम्पूटर इंटरनेट के ज़माने में पढ़ने की आदत बहुत कम होती जा रही है. हालाँकि बड़े बड़े पुस्तक मेले हर साल लगते हैं ओर उनमे लाखों करोड़ों का व्यापार भी होता है लेकिन इतनी पुस्तकें खरीदने वाले भी पढ़ते कितनी हैं ये एक खोज का विषय है.और जो लोग पढ़ते भी हैं उनमे से कितने लोग हिंदी साहित्य पढ़ते हैं ये तो ओर भी ज्यादा बड़ा प्रश्न है. यही बात बच्चों पर भी लागू होती है. इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अपने लायब्रेरी पीरियड में पढ़ते जरूर हैं लेकिन उनकी इंग्लिश सुधारने के लिए उन्हें इंग्लिश साहित्य पढ़ने को प्रेरित किया जाता है.हिंदी साहित्य या तो पुस्तकालयों में उपलब्ध ही नहीं होता या इस स्तर का ही नहीं होता की वह उनमे रूचि जगा सके. 

कई बार स्कूल में या घर पर भी बच्चों से बात करते हुए उन्हें कई बातों का मतलब समझाने में बहुत दिक्कत होती है कारण की कुछ शब्द जो हमें खडी बोली में पता हैं या जिनके हिंदी भाषा में शब्द बहुत क्लिष्ट हैं ओर इंग्लिश में उनके लिए सही शब्द क्या हैं वो तुरंत दिमाग में नहीं आते. ऐसे ही कई जगहों के नाम या रीति रिवाज परंपरा के बारे में बात करने पर ये बच्चे ऐसे ब्लैंक लुक देते हैं की अफ़सोस होता है. कारण ?? कारण ये है की इन्होने कभी इसके बारे में जाना ही नहीं. जब में ऐसा सोचती हूँ कि आखिर सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में ये बच्चे इतने बेखबर क्यों हैं? तो जो कारण समझ में आता है वो है इनकी पढ़ने कि आदत. जी इतना तो कह ही सकती हूँ कि बच्चों को पढ़ने कि आदत तो है या शायद टेक्स्ट बुक्स कि उबाऊ दुनिया से अलग ये कुछ ओर भी पढना चाहते हैं लेकिन जो साहित्य इनके लिए उपलब्ध है वह है विदेशी साहित्य.अब ये बहस का विषय हो सकता है कि देशी ओर विदेशी साहित्य क्या है साहित्य तो आखिर साहित्य है. जी में इस बात से सहमत हूँ कि साहित्य तो आखिर साहित्य है लेकिन इस साहित्य में घटनाएँ, परिवेश,तीज त्यौहार रीति रिवाज सब विदेशी हैं बच्चे उन्हें बड़े चाव से पढ़ते हैं और शायद इसीलिए उन्हें हेल्लोविन ,क्रिसमस, ईस्टर,तो पता है लेकिन वट सावित्री,आंवला नवमी,गंगा दशहरा महालक्ष्मी व्रत जैसे कई कई त्योहारों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. 
जी हाँ हमने इनके बारे में अपने परिवार परिवेश से जाना लेकिन इसके अलावा भी कई संस्कृतियों के बारे में जाना अपनी भाषा ,परिवेश का साहित्य पढ़ कर.
आज अगर बच्चों को बताया जाये कि देश के किसी हिस्से में लड़कियों कि स्थिति बहुत ख़राब है तो वो शायद विश्वास ही नहीं करें क्योंकि ये स्थिति उन्होंने देखी नहीं ओर पढ़ी भी नहीं.उन्होंने तो पढ़ा है कि लड़कियां १२-१३ साल कि होते ही अपने दोस्त बनाने लगती हैं उनके जीवन के सुख दुःख इन लड़कों से जुड़े होते हैं.उनके माता पिता उन्हें कुछ कहते ही नहीं है.वे जानते ही नहीं हैं कि हमारे देश में लड़कियों को घर से बाहर निकलने के लिए कितने लोगों कि इजाजत लेनी होती हैं या कम उम्र में शादी होना माँ बनना या एक बेमेल शादी को सारी उम्र निभाना कितना मुश्किल होता है. 
वे ये तो जानते हैं कि लोग बुरे होते हैं लेकिन कितने बुरे हो सकते हैं या हमारे यहाँ लोगों कि मानसिकता महिलाओं बच्चों को लेकर क्या होती है उसका उन्हें अंदाज़ा ही नहीं है, वे तो रापंजल, सिन्द्रेल्ला, स्नो व्हाइट में ही खोये हुए हैं जहाँ हर लड़की को बचाने एक राजकुमार आ जाता है.उन्हें क्या पता कि जाने कितनी ही लड़कियां कभी बच पाने के सपने देखे बिना ही दम तोड़ देती हैं. 
कितने ही लडके अपने माता पिता के सपनों का बोझ ढोते असमंजस में जिंदगी गुजार देते हैंऔर कितने ही माता पिता बच्चों कि बेरुखी के चलते बुढ़ापे के अकेलेपन से जूझते रहते हैं. 
खैर गलती बच्चों कि नहीं है.वे तो पढ़ते है और जो भी उन्हें मिले पढ़ते हैं या जो उन्हें पढने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है वो पढ़ते हैं लेकिन हम ही उनकी हिंदी साहित्य में रूचि जाग्रत नहीं कर पा रहे हैं .उन्हें अपने परिवेश को जानने समझने के लिए उचित सामग्री प्रदान नहीं करवा पा रहे हैं.
मेरा मानना है कि बच्चों के लिए अच्छी हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओँ के सामग्री उपलब्ध करवाना चाहिए जिससे वे अपने परिवेश से जुड़ सकें. 


बुधवार, 4 जुलाई 2012

ये भी तो जरूरी है


वैसे तो अभी तक स्कूल कि छुट्टियाँ चल रहीं थीं लेकिन स्कूल दिमाग से निकलता थोड़े ही है.बल्कि छुट्टियों में और ज्यादा समय मिलता है स्कूल कि बातें सोचने उन पर नए सिरे से विचार करने का. रोज़ कि पढाई के साथ एक अतिरिक्त जिम्मेदारी टीचर्स पर होती है और वह है किसी टीचर के अनुपस्थित होने पर उसकी क्लास लेना.वैसे तो इस पीरियड में पढाई ही होनी होती है लेकिन बच्चे सच पढ़ना नहीं चाहते.बड़ी मुश्किल से तो उन्हें कोई फ्री पीरियड मिलता है. तो जैसे ही क्लास में पहुँचो पहली ख़ुशी उनके चेहरे पर दिखती है कि चलो आज पढना नहीं है.लेकिन जल्दी ही ये ख़ुशी काफूर हो जाती है जब उन्हें पता चलता है कि ये फ्री पीरियड फ्री नहीं है बल्कि इसमें भी पढना ही है.और सच बताऊ मुझे इसमें बहुत तकलीफ होती है.बच्चों को इस फ्री पीरियड में अपने मन का काम करने की ,अपने दोस्तों से बात करने कि आज़ादी होना ही चाहिए.आखिर ये भी तो सीखने का एक तरीका हो सकता है.अपने दोस्तों से बात करना या उनके साथ बैठ कर अपनी पढाई कि मुश्किलों को हल करना या अपना अधूरा काम पूरा करना या फील्ड में जाना खेलना वगैरह.लेकिन स्कूल में खेलने और लायब्रेरी के पीरियड होते हैं इसलिए और एक्स्ट्रा पीरियड देना संभव नहीं होता. 

वैसे इन पीरियड में में बच्चों से बात करना चाहती हूँ.ये टीचिंग लर्निंग का सबसे अच्छा तरीका है.लेकिन अफ़सोस बच्चे इसमें आसानी से शामिल नहीं होते. उन्हें लगता है कि टीचर उनसे कुछ उगलवा कर उनके खिलाफ ही उपयोग कर सकती है.वैसे भी अविश्वास एक राष्ट्रीय बीमारी हो गयी है.खैर कभी कभी बच्चों को ये भी कहना पड़ता है कि बातचीत में शामिल होना उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा है इस तह मजबूरी में ही सही लेकिन जब बच्चे बातचीत में शामिल होते है तब बहुत आश्चर्यजनक ओर अद्भुत तथ्य सामने आते हैं.कभी बच्चों का डर तो कहीं उनके मन के संदेह सामने आते हैं तो कभी कभी लगता है कि बच्चे सच में बहुत छोटी छोटी साधारण सी बातें भी नहीं समझ पा रहे हैं क्योंकि ये बातें कभी उनके सामने हुई ही नहीं. 
एक दिन ऐसे ही किसी क्लास में हुई चर्चा यहाँ दे रही हूँ..आप खुद ही पढ़िए सोचिये और समझिये कि सच में इस पीढ़ी कि जरूरत क्या है?
टीचर  :  आप लोग दिन भर में इतनी बातें करते हैं कभी सोचते हैं कि इनमे से कितनी बातें ऐसी होती हैं जिनका कोई अर्थ  होता है?
बच्चे:    चुप्पी 
टीचर:   अच्छा कितने लोग हैं जो रात में सोचते हैं कि हमने दिन भर में कितनी और क्या क्या बातें कीं?
बच्चे:    (सिर्फ एक मुस्कान) 
टीचर:  देखिये अगर आपलोग बात नहीं करना कहते तो ठीक है में मेथ्स के सवाल दे देती हूँ.क्योंकि समय बर्बाद नहीं किया जा सकता कुछ तो करना ही है. 
बच्चे:  नहीं मैडम 
टीचर:   अच्छा आपमें से कितने बच्चों को लगता है कि आप अपनी किसी बात से अपने दोस्तों को या साथियों को हर्ट करते हैं?
बच्चे:  (इधर उधर देखते हुए) एक फिर दो फिर तीन चार बच्चे हाथ उठाते हैं?
टीचर:   अच्छा कितनों को हर्ट करने के तुरंत बाद  लगता है कि आपने हर्ट किया है?
         फिर ८- १० हाथ उठाते हैं.
टीचर:   अच्छा कितनों को लगता है कि हमें अपने दोस्त या साथी से माफ़ी मांगनी चाहिए?
           (संकोच से इधर उधर देखते ६ -७  हाथ उठाते हैं)
टीचर :   कितने लोग सच में माफ़ी माँगते हैं?
बच्चे:    एक दूसरे से आँख चुराते हुए २-३ बच्चे हाथ उठाते हैं. 
टीचर:    ये बताइए जब आपको लगता है कि आपने किसी को हर्ट किया लेकिन उससे माफ़ी नहीं मांगी,तो ये बात आपको परेशान करती        है??
बच्चे:   जी मैडम ,परेशान करती है बार बार वो बात ध्यान आती है. 
टीचर:   क्या बात ध्यान आती है और क्या लगता है?
बच्चे:    वो बात याद आती है कि हमने किसी को हर्ट किया या बुरा किया.
टीचर:    तो कितने लोग है जो इस बात को महसूस करने के बाद दूसरे दिन या उसके बाद भी माफ़ी माँगते हैं?
बच्चे:     १-२ बच्चे हाथ उठाते हैं.
टीचर:    चलिए कोई बात नहीं लेकिन इस बात को लेकर उस दोस्त के सामने आने में शर्म आती है या आप उससे बात नहीं करते ऐसा कितनों को लगता है? 
            ( अब तक बच्चों को शायद ये विश्वास होने लगा था कि ये बातचीत हानिकारक नहीं है और मैडम इसका कोई रिकॉर्ड नहीं रख रही हैं. तो वे खुलने लगे)
बच्चे:    लगभग १२-१५ बच्चे हाथ उठाते हैं. 
टीचर:    अच्छा कितनो को लगता है कि अगर तुरंत माफ़ी मांग ली होती तो ज्यादा अच्छा  होता?दोस्ती भी बच जाती और यूं परेशान भी नहीं होना पड़ता?
बच्चे:    हाथ उठाते हैं साथ ही अब एक दूसरे को देखते भी हैं. अभी तक कुछ बच्चे एक दूसरे से आँखे चुरा रहे थे. 
टीचर:   क्या आपको लगता है कि माफ़ी मांगना इतना मुश्किल है?? 
बच्चे:     मैडम शर्म आती है. 
            लगता है मेरा दोस्त क्या सोचेगा? 
टीचर :   अच्छा कितनो  को लगता है कि अगर मेरा दोस्त एक बार सॉरी कह देता तो अच्छा होता.( कई बच्चे हाथ उठाते हैं )
टीचर:    अगर किसी बहुत पुरानी बात के लिए अगर कोई अभी सॉरी कहेगा तो क्या आप माफ़ कर देंगे और फिर से दोस्त हो जायेंगे?
बच्चे:     यस मैडम 
टीचर:    अच्छा ठीक है आप लोग जिसे भी सॉरी कहना चाहते हैं उसे सॉरी कह दीजिये .( ४-५ बच्चे एक दूसरे को आँखों आँखों में सॉरी कहते हैं कुछ अभी भी चुप चाप बैठे टीचर को देख रहे हैं .उनमे अभी भी झिझक है )
टीचर:    ठीक है में आँखे बंद करती हूँ आप अगर किसी से सॉरी कहना कहते हैं तो आपके पास ३ मिनिट का समय है. ( टीचर आँखें बंद करती है और पूरी क्लास में हलचल शुरू हो जाती है.आँखे खोलने के बाद बच्चों के प्रफुल्लित चहरे दिखते हैं.)
टीचर:   आप लोगो को कैसा  महसूस हो रहा है? 
बच्चे:     बहुत अच्छा ,हल्का महसूस हो रहा है.ख़ुशी हो रही है. 
टीचर:    अच्छा क्या सॉरी कहना वाकई इतना मुश्किल था??
बच्चे:     नहीं मुश्किल नहीं था, कुछ ने कहा थोडा मुश्किल था , तो कुछ ने कहा कि मुश्किल तो है लेकिन कह सकते हैं. 
टीचर:     क्या आपको लगता है कि अगर हम तुरंत सॉरी कह दें तो हमारा टेंशन कम हो जाता?
बच्चे:    जी मैडम सॉरी तुरंत कह देने से सच में कम टेंशन होता.
टीचर:   तो क्या अब से आप लोग तुरंत सॉरी कहना अपनी आदत बनायेंगे? लेकिन हाँ किसी को जानबूझ कर हर्ट नहीं करना है कि बाद में सॉरी कह देंगे. 
बच्चे:    यस मैडम अब से हम गलती करते ही तुरंत माफ़ी मांग लेंगे. 

पीरियड ख़त्म होने को है. अब बच्चे बचे समय में एक दूसरे से बात कर रहे हैं वो खुश हैं और मुझे ख़ुशी है कि में उन्हें वह ख़ुशी दे पाई .एक फ्री पीरियड एक सार्थक चर्चा के साथ ख़त्म हुआ.  बच्चों ने कुछ सीखा जो शायद पढाई से ज्यादा जरूरी भी था. 
kavita   वर्मा  

गुरुवार, 21 जून 2012

अरे मेडम


कहते है जिंदगी हर कदम पर कुछ न कुछ सिखाती है,और ये पाठ हमें अपनी या दूसरों द्वारा किये गए भूलों ,कामों से तो मिलती ही है जीवन में मिलने वाले लोगो के सानिध्ध्य से भी मिलती है। अपने शैक्षणिक जॉब के दौरान सबसे ज्यादा सानिध्ध्य तो बच्चों का ही रहता है और बच्चे बहुत अच्छे शिक्षक होते है बस जरूरत है उनके काम, व्यवहार, बातों को उस सकारात्मक नज़रिए से देखने की।

कुछ ही दिन पहले की बात है। दोपहर भोजन के दौरान क्लास ५ की कुछ लड़कियों को रोते हुए देखा। कारण पूछने पर पता लगा उनकी क्लास की ही किसी लड़की से लड़ाई हो गयी है ,उसने कुछ कहा है और इस वजह से एक दो नहीं पूरी ५ लड़किया हिलक हिलक कर रो रही है। अब एक लड़की लड़ाई में ५-५ लड़कियों को रुला दे तो पहला ख्याल मन में आता है ,जरूर उसने कुछ किया ही होगा...खैर उन लड़कियों को किसी तरह चुप करवा कर खाना खिलाया और में बात करूंगी इस बात का आश्वासन दिया ।

खाने के बाद उस लड़की को देखा तो अपने पास बुलाया...अभी हम उसे दिव्या कहे? इससे बात करने में आसानी होगी। खैर मैंने पूछा दिव्या क्या हुआ?
मैडम कुछ नहीं ,उसने भोले पन   से जवाब दिया ।
firनीसासारी  लड़कियाँ क्यों रो रही है।
अरे मैडम वो ,अरे मैडम कुछ नहीं एक ने मुझसे कहा की मैंने दूसरी लड़की को चिडचिडी कहा और जब मैंने दूसरी लड़की को बताया तो पहली वाली ने मना कर दिया अब सब मेरे पीछे पड़ गयी है।
मुझे समझ तो कुछ नहीं आया ,फिर भी मैंने कहा ,लेकिन इस बात के लिए इतने सारे लोग क्यों रो रहे है?

अरे मैडम कुछ नहीं,ये सब कहते है की में बहुत चिडचिडी हूँ ,मैंने कहा ठीक है में मान लेती हूँ की चिडचिडी हूँ ,तो क्या बहुत सारे लोग होते है। पर मैडम मैंने कहा की में अपने को बदल लूंगी । अब मैडम एक दिन में तो सब नहीं बदल जायेगा न? मैंने कहा है में अपने को बदल लूंगी...
मैडम सब पता नहीं क्यों मेरे पीछे पड़  जाते है ...में ऐसी हूँ वैसी हूँ ...तो क्या हुआ मैडम ,मैंने कह तो दिया में बदल लूंगी खुद को। अब रोना तो मुझे चाहिए इस बात पर ,और देखिये में तो रो नहीं रही हूँ और ये सब रो -रो कर तमाशा कर रही है।
में अवाक् उस लड़की का आत्म विश्वास देखती रही...किसी भी परिस्थिति को स्वीकार करने का उसका नजरिया किसी अनुभवी प्रोफेशनल से कम  न था।
दिव्या ,ये तो बहुत अच्छी बात है की तुम उनकी बातों को सकारात्मक तरीके से लेती हो और खुद को बदलने के लिए तैयार हो ,तो क्यों नहीं तुम उनसे जाकर बात करती हाथ मिलाओ और फिर से दोस्त बन जाओ।
अरे मैडम आज नहीं अभी जरा उन सबको ठंडा हो जाने दो ,आज में बात करूंगी भी न, तो कोई सुनेगा नहीं। में बाद में उनसे बात कर लूंगी। वैसे भी मैडम अगले हफ्ते मेरा बर्थ डे आने वाला है ,देखना में कार्ड दूँगी न तो सब पार्टी में आ जायेंगे।
में उस लड़की का आत्म विश्वास देखती रह गयी.उस कक्षा ५ की १० साल की लड़की का परिस्थितिओं को देखने का नजरिया ,उन्हें अपने हिसाब से ढाल लेने का विश्वास मुझे जिंदगी को नए तरीके से देखने का सबक सिखा गया।

सोमवार, 18 जून 2012

बच्चों को दे सकारात्मक माहौल


बच्चों के लिए कुछ अच्छा करने की कोशिश हम सभी करते हैं.मकसद होता है उन्हें कुछ सिखाना,समझाना,सही राह दिखाना,उनमे अच्छी आदतों का विकास करना,सही गलत की पहचान करने की काबिलियत विकसित करना.
इसी सन्दर्भ में बच्चों का एक अखबार निकलना शुरू हुआ नाम था दिशा और मकसद था बच्चों को जीने की सही दिशा बताना.
एक दिन कक्षा आठ में बच्चों से इस बारे में चर्चा करने का अवसर मिला.मैंने बच्चों से पूछा की इस अखबार का प्रयोजन क्या है?
बच्चों का जवाब था सकारात्मक ख़बरें बच्चों तक पहुँचाना .
सकारात्मक ख़बरें होती क्या हैं?
इस बारे में बच्चे थोड़े भ्रमित थे. किसी ने कहा जो ख़बरें अच्छीं हों. अब अच्छी मतलब?
जैसे भारत मैच जीता .
अच्छा मान लो अगर भारत हारा और पाकिस्तान जीता तो पकिस्तान जीता ये एक सकारात्मक खबर नहीं होगी? आखिर तो जीत की खबर ही सकारात्मक खबर है. पर बच्चे इस पर एकमत नहीं थे. 
फिर किसी ने कहा जैसे मर्डर की खबर नकारात्मक खबर है.ऐसी खबर बच्चों को नहीं सुनना /बताना चाहिए. 
ठीक है तो क्या ऐसा कह सकते हैं की एक को छोड़ कर बाकी सब लोग जिन्दा और सही सलामत हैं.ये तो सकारात्मक खबर है या ये की कई घरों में चोरी होने से बच गयी. 
खैर ये तो बच्चों का मन टटोलने की कोशिश थी और बच्चे भी समझ रहे थे की ये सकारात्मक नहीं है और नकारात्मक क्या है ये भी उन्हें पता था जो सुखद था. 
इस बातचीत ने सकारात्मकता पर बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया.इस बारे में बच्चों से ढेर सारी बातें भी हुईं पर मन में जो एक बात कचोट गयी वह ये थी की भारत की जीत तो सकारात्मक है(जो बच्चों के देशप्रेम को इंगित करती है) लेकिन अन्य टीम की जीत जीत क्यों नहीं है?इसका अर्थ तो ये हुआ की हमारे बच्चे खेल को खेल भावना से नहीं ले रहे हैं.उनके लिए खेलने का अर्थ सिर्फ जीतना है पर क्या बिना हारे बच्चे जीत का मतलब समझ पाएंगे?
मैंने जब कहा सकारात्मक ख़बरों का मतलब है सामाजिक संस्था,संस्कार और मूल्यों को दर्शाती ख़बरें,तो इन भारी भारी शब्दों के साथ इसे समझना उनके लिए मुश्किल था. उन्हें कुछ सरल उदाहरण देना जरूरी था. 
मैंने उन्हें बताया हम आये दिन ख़बरों में पढ़ते हैं कहीं चोरी हुई,दुर्घटना हुई हत्या डकैती या सरकारी दफ्तरों में धांधली रिश्वतखोरी और इन बातों को देखते सुनते पढ़ते धीरे धीरे हमारा विश्वास अच्छी बातों से कम होता जाता है और मन में ये विश्वास बनने लगता है की दुनिया चोर डकैतों धोखेबाजों से भरी पड़ी है .क्योंकि अच्छे लोगों की उनके अच्छे कामों की खबरें उस तादाद में हम तक नहीं पहुंचतीं जिस तादाद में बुरी ख़बरें हम तक पहुंचती हैं.हम लोग भी बुरे को देखने के आदि हैं.
सड़क किनारे कोई घायल तड़प रहा है उसकी मदद किसी ने नहीं की इस बारे में हम बात करते हैं पर सड़क पर किसी ठेले वाले के ठेले को धक्का लगवा कर सड़क पार करवाने वाले किसी ट्रेफिक हवालदार या अन्य व्यक्ति की तारीफ हम नहीं करते. 
मोबाइल गुम गया,चोरी हो गयी,जेब काट गयी इस बारे में बात होती है पर कोई अनजान व्यक्ति अगर सड़क पर पड़ी फाइलों को हम तक पहुंचा देता है तो उसके बारे में अखबार में बता कर इस अच्छाई को लोगों तक पहुँचने की चिंता हम नहीं करते.कोई हमें लिफ्ट दे कर अपना रास्ता बदल कर हमें अपने गंतव्य तक पहुंचता है तो हम सिर्फ एक थेंक्यु कह कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं पर समाज को एक अच्छे व्यक्ति के अच्छे काम से अवगत कराने की जिम्मेदारी हम नहीं निभाते. नतीजा ये होता है की बुरी ख़बरें लगातार ख़बरों में बनीं रहतीं हैं और अच्छाई पर से विश्वास कम होता जाता है. 
वैसे भी घरों में हम बच्चों को कौन सा सकारात्मक माहौल दे रहे हैं? सास-बहू सीरियल, रियलिटी शो के नाम पर हम बच्चों को एक दूसरों पर विश्वास ना करने की सीख ही तो दे रहे हैं.इसके अलावा हमारी रोज़मर्रा की बातें भी बच्चों को नकारात्मकता की ओर ही तो धकेल रहीं हैं. ट्रेफिक   पुलिस को चकमा देना ,अपनी पहचान का इस्तेमाल कर अवांछित सुविधाएँ पाना रिश्वत दे कर काम निकलवाना जैसी जाने कितनी ही बातें कभी अनजाने ही और कभी जानबूझकर बच्चों के सामने करके हम उनके दिमाग में एक धीमा जहर भर रहे हैं. अच्छाई पर बुराई,तिकड़म की जीत हो सकती है यह विशवास उनके मन में घर कर रहा है. इसीलिए किसी की जीत को बच्चे आसानी से पक्षपात मान लेते हैं,खुद को डांट पड़ने को दोस्तों द्वारा की गयी शिकायत मान लेते हैं.ये नकारात्मकता उन पर इस कदर हावी है की महापुरुषों के जीवन के प्रेरक प्रसंग उनके लिए कहानियां भर हैं. वे उनसे कोई सीख नहीं लेते क्योंकि ऐसा कुछ होते ना वो देखते हैं ना सुनते हैं. 
इस सारे चिंतन के बाद बच्चों के भविष्य की जो भयावह तस्वीर उभरी वह था एक विश्वाश हीन समाज जिसमे रहने को हमारे बच्चे विवश होंगे.एक ऐसा समाज जिसमे ये विश्वास नहीं होगा की हमारे रिश्तेदार,पडोसी,दोस्त हमारी ख़ुशी में खुश होंगे .एक ऐसा समाज जिसमे अच्छा करने वाला मूर्खों की तरह घूरा जायेगा या वह अविश्वास के तीखे प्रहारों से आहत होगा .
कभी सोचा है हम इस नकारात्मकता को फैला कर बच्चों को एकाकीपन से भरा कैसा भविष्य देने जा रहे हैं? 
आज समय आ गया है की हम बच्चों के अच्छाई पर विश्वास को पुख्ता करने के लिए काम करें. अच्छे काम का ज्यादा से ज्यादा प्रचार प्रसार करें.भले कामों को प्रमुखता से प्रचारित करें. 
कहीं ऐसा ना हो अकेली सड़क पर जा रहा कोई बच्चा ठोकर लगने पर पीछे मुड़ कर देखे और सोचे जरूर मेरी परछाई ने ही मुझे धक्का दिया होगा.