गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

छोटी सी सलाह

रोज़ सुबह बच्चों की यूनिफार्म चेक होतीं और वह बच्चा लगभग रोज़ ही कभी गन्दी यूनिफार्म कभी बिना इस्त्री किये कपड़े कभी बिना पोलिश किये जूते के लिए खड़ा होता। किताब कॉपियाँ नहीं लाना ,होमवर्क न करना ये भी रोज़ का ही काम था।  हालाँकि वह पढ़ने में ठीक ठाक था पर अधिकतर खोया खोया ही रहता, शायद उसकी सुबह ही सजा से शुरू होती थी इसका असर था।  
स्टाफ रूम में अक्सर उस बच्चे की चर्चा होती थी लेकिन एक वितृष्णा के साथ , लगभग हर टीचर उसकी लापरवाही से परेशान थी। हाँ चर्चा इस बात की भी होती की वह शहर के करोड़पति का इकलौता बेटा था और उसकी माँ सुबह की फ्लाईट से बोम्बे जाती है शोपिंग करने और शाम की फ्लाईट से वापस लौट आती है।  घर और बच्चा नौकरों के हवाले रहते हैं। सुबह जब वह स्कूल आता है तब मम्मी पापा सो रहे होते हैं और शाम को जब घर लौटता है वे अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं। उसे कुछ कहो तो वह सिर नीचा करके चुपचाप सुन लेता था एक शब्द भी न कहता। 
करीब महीने भर मैं उसे देखती रही उस पर तरस आता लेकिन कुछ कहना ठीक भी नहीं लगा।  एक दिन मैंने उसे क्लास के बाहर बुलाया और उससे कहा -"बेटा ये तुम रोज़ गन्दी यूनिफार्म क्यों पहनते हो ?"
उसकी आँख डबडबा गयीं लेकिन फिर भी वह कुछ नहीं बोला।  
मैंने फिर कहा -"आप अब सिक्स्थ क्लास में आ गए हो, इतने बड़े तो हो गए हो की अपना बेग जमा सको , अपनी यूनिफार्म साफ सुथरी रख सको अपने जूते पोलिश कर सको।  आपके मम्मी पापा बिज़ी रहते हैं तो कम से कम आप खुद कह सकते हो की मेरी ड्रेस धो दो, प्रेस कर दो ,जूते आप खुद रात में पोलिश कर सकते हो है न ?" 
वह एकटक मुझे देखता रहा। आँखें अभी भी भरी हुईं थीं शायद घर में जो उपेक्षा उसे मिल रही थी वह उस पर हावी थी।  
मैंने फिर समझाया " देखो बेटा बहुत सारे पेरेंट्स नौकरी करते हैं सुबह जल्दी घर से जाते हैं उनके बच्चे भी अपना काम खुद करते हैं , है ना ? फिर खुद काम करना तो अच्छी आदत है आप अपना खुद का ध्यान तो रख ही सकते हो।  आप रोज़ रोज़ सज़ा पाते हो मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। प्रोमिस करो अब से रोज़ अपना बेग जमाओगे सभी कॉपी किताबें लाओगे और साफ सुथरे स्मार्ट बन कर आओगे। " 
इस बात से अपनी उपेक्षा का भाव कुछ कम हुआ , उसने जाना की बहुत सारे बच्चे अपना काम करते हैं  वह भी कर सकता है। उसने धीरे से सिर हिलाया और अपनी जगह पर बैठ गया।  
दूसरे दिन मैंने देखा उसने साफ सुथरी इस्त्री की हुई ड्रेस पहनी थी जूते पोलिश थे बेग ठीक से जमाया हुआ था , उसके चेहरे और आँखों में उलझन नहीं थी और पहली बार सुबह सुबह खड़ा नहीं होने से वह सिर उठा कर गर्वीली मुद्रा में बैठा हुआ था.  

* * *

13 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया...अक्सर हम यह भूल जाते हैं कि बच्चों को आपके प्यार और समय की जरूरत होती है रुपय पैसे या महंगी चीजों कि नहीं...

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (06-12-2013) को "विचारों की श्रंखला" (चर्चा मंचःअंक-1453)
    पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत ही प्रभावशाली बात कही है आपने, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  4. सटीक व्यंग्य विडंबन परिवेश की झरबेरियों की चुभन लिए है रचना।

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  5. टीचर की सकारात्मक पहल में बहुत शक्ति होती है उत्प्रेरण भी। बेहतरीन रचना।

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  6. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट DREAMS ALSO HAVE LIFE पर आपके सुझावो की
    प्रतीक्षा रहेगी।


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  7. सही कहा प्यार से समझाने का ज्यादा असर होता है

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  8. प्रेम से दुनिया में बहुत किया हा सकता है...बहुत प्रभावी प्रस्तुति...

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